वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 514
From जैनकोष
अहिंसैकापि यत्सौख्यं कल्याणमथवा शिवम् ।दत्ते तद्देहिनां नायं तप:श्रुतयमोत्कर: ॥514॥
कल्याणकारी अहिंसा परिणाम ― यह अहिंसा एक अकेली ही जीवों को सुख और कल्याण प्रदान करती है । जो सुख कल्याण एक इस अहिंसा परिणति के पालने से प्राप्त होता है वह बड़े-बड़े तप स्वाध्याय यम नियम आपिक से भी प्राप्त नहीं होता । अथवा यों समझिये कि करने का काम तो एक अहिंसा ही है । अहिंसा में संपूर्णचारित्र पड़ा हुआ है । भाव अहिंसा, द्रव्य अहिंसा, अपने आपके परिणाम में अज्ञान न आने देना, रागद्वेष की बात न आने देना, केवल एक शुद्ध स्वभाव की दृष्टि के बल से अपने आपको केवल ज्ञातादृष्टा के रूप की प्रवृत्ति करना सो तो है भाव की अहिंसा और बाहर में किसी प्राणी को न मारना, किसी का दिल न दु:खाना यह है द्रव्य की अहिंसा । जिसका अहिंसक जीवन है वह पुरुष अपने ही अहिंसा परिणाम के कारण सुखी रहता है ।
मोह, रागद्वेष हमारे दुश्मन ― अपने को सताना यह कहाँ की बुद्धिमानी है ॽ पर ये जीव मोहवश अपने को सताते रहते हैं । और उस अपने आपको सताने के कारण जो क्लेश होता है उस क्लेश को दूर करने का भी उपाय ऐसा ही रचते हैं जिसमें खुद को सतायें । हमारा दुश्मन है तो राग द्वेष मोह । जगत में कोई मेरा बैरी नहीं । जिस किसी को भी बैरी माना है वह बैरी नहीं है किंतु उससे जो मेरा द्वेष परिणाम हो रहा है वह द्वेष परिणाम मेरा बैरी है । इसी प्रकार जिससे राग बना हुआ है वह पुरुष भी न बंधु है, न बैरी है । प्रत्युत उस पुरुष के प्रति जो रागद्वेष बन रहा है यह राग मेरा बैरी है । मेरा विघातक रागद्वेष मोह भाव है । किसी अन्य के प्रति विरोधी की कल्पना न करना चाहिए । जीव हैं सब । सब कर्मोदयवश अपने-अपने स्वार्थ को चाहते हैं ।
पर को विरोधी मानना अपनी भूल ― जिसने जिसमें सुख माना उस सुख को चाहता है और वैसी ही अपनी परिणति करता है । अब उनकी उस परिणति में यदि हम कुछ प्रतिकूलता मानते हैं तो यह हमारी कल्पना है । जीव कोई भी मेरा बैरी नहीं है । कदाचित चारों ओर से मनुष्य मेरे विरोधी बनने लगें, अपमान करने लगें, इतने पर भी संसार में एक भी जीव मेरा बैरी नहीं है । उन जीवों के मन में ऐसी कल्पना जगी, उनको इस ही में आनंद जँचा, वे अपनी कषाय के कारण दूसरों को देख नहीं सके इस ईष्यावश । समझिये अपनी इच्छा से वे अपना प्रयत्न कर रहे हैं, मेरा विरोध नहीं कर रहे हैं । उनके प्रयत्न को निरखकर हम विरोधी मानें तो यह हमारी भूल है । मेरा जगत में कोई भी शत्रु नहीं है । किसी ने मुझ पर कितना ही उत्पात मचाया हो, आर्थिक हानि की हो, विवाद कलह मचाया हो, हमारा अनिष्ट करने में जुड़ रहा हो तो हम उससे सावधान तो रहें ताकि हम संक्लेश में न पड़ जायें, लेकिन चित्त में यह न मानें कि वह जीव हमारा दुश्मन है ।
ज्ञानी पुरुषों के स्वसावधानी ― विवेक बनायें कि अपनी सावधानी भी बनाये रहें और दूसरों को विरोधी न मानें, ऐसा बल ज्ञानी पुरुष में होता है । सामने कोई शस्त्र प्रहार कर रहा हो तो उस पर शस्त्र प्रहार करते हुए भी ज्ञानी गृहस्थ कोई अपनी सावधानी बना रहा है किंतु दूसरे जीवों को मारने का संकल्प नहीं कर रहा है । किसी के भी कल्याण की इच्छा किसी भी सम्यग्दृष्टि पुरुष में नहीं होती । जिनके भी सम्यक्त्व जगा है, चूँकि उनको यह पहिचान है कि आत्मा का सहजस्वरूप यह चैतन्यभाव है और यही स्वरूप सब जीवों का है तो ऐसा समता का स्वरूप समझ लेने वाले सम्यग्दृष्टि पुरुष किसी का कैसे अकल्याण चाह सकते हैं ।
अहिंसक वृत्ति से सुख ― जो पुरुष इस प्रकार अहिंसावृत्ति को वर्तता है उस पुरुष को जो सुख प्राप्त होता है, जो कल्याण अथवा अभ्युदय प्राप्त होता है वह अन्य बातों से नहीं होता । मान लो कोई तपश्चरण तो बहुत करता हो, बड़े-बड़े कठिन कर्मोदय के बढ़ने पर बड़ा उत्कृष्ट तपश्चरण करता हो, किंतु क्रोधादिक भाव बहुत बने रहते हों, दूसरे जीवों के प्रति दया का परिणाम न जगता हो, कोई तड़फता हो तो उसको देखकर भी अनुकंपा का भाव न जगे, केवल एक वृत्ति से कठोर तपश्चरण करता हो तब भी उसे उस तपश्चरण से कल्याण प्राप्त नहीं होता । तपश्चरण कल्याण करते हुए मनुष्य का सहायक तो है किंतु कल्याण का कारण अहिंसा का परिणाम है, तपश्चरण नहीं है। तपश्चरण अहिंसा परिणाम की रक्षा करने में सहायक है । अहिंसा परिणाम से कल्याण करते हुए पुरुष को तपश्चरण मदद देता है, पर अहिंसा परिणाम न हो तो ये बड़े-बड़े तपश्चरण भी कल्याण को प्राप्त नहीं करा सकते क्योंकि धर्म के सब अंगों में अहिंसाधर्म ही एक प्रधान अंग है ।
धर्म का प्रधान अंग अहिंसा ― अहिंसा परमोधर्म:, इस बात को सभी लोग कहते हैं, और जिन्होंने जितनी अहिंसा की थाह ली है वे उतने में अहिंसा की व्याख्या करते हैं । जैन सिद्धांत में अहिंसा का स्वरूप समता बताया है । रागद्वेष न होना, केवल ज्ञातादृष्टा रहना यही है अहिंसा का उत्कृष्टरूप । इस अहिंसाधर्म के पालन करने वाले संत आत्मा के ध्यान के पात्र होते हैं । और, जो आत्मध्यानी हैं वे मुक्ति को प्राप्त करते हैं । सभी को शांति चाहिए । भले ही मुक्ति आज नहीं है किंतु शांति का मार्ग यही है जो मुक्ति का मार्ग है । जो जितना अपने आत्मध्यान में दृढ़ होगा वह उतनी ही शांति प्राप्त कर सकेगा ।