वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 517
From जैनकोष
किंत्वहिंसैव भूतानां मातेव हितकारिणी ।तथा रमयितुं कांता विनेतुं च सरस्वती ॥517॥
माता से अहिंसा की तुलना ― अहिंसा ही माता की तरह हितकारिणी है और यह अहिंसा ही स्त्री की तरह रमाने के लिए समर्थ है । और, यह अहिंसा ही सन्मार्ग में ले जाने के लिए सरस्वती की तरह है, अहिंसा नाम है जहाँ मोह राग द्वेष का विकार न हो, केवल ज्ञानप्रकाश में आत्मा बसता हो तो ऐसी परिणति नाम अहिंसा है, अहिंसा परिणति माता की तरह हितकारिणी है । जैसे माँ अपने पुत्र का हित सोचती है । माँ अपने बच्चे को बड़ा से बड़ा ऊँचा निरखना चाहती है । शायद पिता के यह बात भी कभी आ जाय कि पुत्र की महत्ता को वह न सहन कर सके, पर माँ पुत्र को सर्वोच्च देखना चाहती है । अतएव अहिंसा की माता से उपमा दी है ।
ज्ञानी के कोई शत्रु नहीं ― जीव का हित अहिंसा से है । अहिंसा का मतलब निर्विकारता से है । यद्यपि गृहस्थावस्था में प्रसिद्धि ऐसी है कि द्वंद्व, विरोध, युद्ध आदिक अनेक बातें करनी पड़ती हैं इतने पर भी ज्ञानी जीव किसी भी जीव को शत्रु नहीं समझता । चाहे मुकाबला कर ले, युद्ध में वह मारा भी जाय, इतने पर भी वह यह नहीं समझता है कि यह मेरा शत्रु है । परिस्थितिवश अपने बचाव के लिए या अधर्म का विनाश करने के लिए, धर्म का अभ्युदय करने के लिए कुछ भी करना पड़े लेकिन ज्ञानी के यह निर्णय है कि मेरा लोक में कोई भी जीव शत्रु नहीं है । इस निर्णय का कारण यह है ज्ञानी पुरुष इस जीव का स्वरूप पहिचानता है । सभी जीव चैतन्यस्वरूप है और स्वरूप से सब एक समान हैं । स्वरूपदृष्टि से कोई भी जीव किसी का विरोधक नहीं है । अभी जो कुछ विराधना जैसी बात बन रही है वह एक पर्याय में पर्याय बुद्धि से बन रही है । तो मूल में परिचय होने से ज्ञानी जीव किसी को भी अपना शत्रु नहीं समझता है, ज्ञानी की इसी परिणति का नाम है अहिंसा भाव ।
आशय की विशुद्धि ही अहिंसा ― अहिंसा का अर्थ स्वच्छता से है । लोग अहिंसा का अर्थ केवल ऊपरी तौर से किया करते हैं, उसमें उनको ऐसा जँचता है कि अहिंसा तो एक कायरता का भाव है, पर हो कोई ऐसा बलवान पुरुष कि युद्ध भी कर रहा हो और उसमें विजय भी पाता हो, फिर भी अपने मन से किसी को शत्रु न समझता हो, ऐसा ज्ञानी हो सकता है । दृष्टांत के लिए जैसे थोड़ी बहुत आज लोग मंत्री की तारीफ कर रहे हैं जो कि गुजर गए कि जब युद्ध का समय था तो वहाँ इतना साहस रखा ― पार करो सीमा, बढ़ जावो, हम हटेंगे नहीं, बड़ा कौशल दिखाया । जब शांति के स्तर पर वार्ता चली तो अपने पूर्व निर्णय को भी प्रधानता न देकर उस समझौते में आगे बढ़े । एक दृष्टांत बता रहे हैं । ज्ञानी पुरुष की इससे भी महत्त्वपूर्ण कला है । वह युद्ध में पूर्ण पराक्रम से लड़ता है और लड़ने के समय में भी किसी जीव को अपना बैरी नहीं समझता, किंतु परिस्थिति ऐसी है कि लड़ना पड़ता है । तो गृहस्थों में भी अहिंसा परिणति की झलक है । अहिंसा के मायने आशय की विशुद्धि । अभिप्राय स्वच्छ रहना । उस अभिप्राय के स्वच्छ रहते हुए जो परिणति बनती है वह परिणति अहिंसा है ।
जीव का उद्धारक अहिंसा धर्म ― तो अहिंसा ही इस जीव का उद्धार करने वाली है । यश प्रतिष्ठा, इस लोक का भी वैभव, परलोक का भी वैभव और यहाँ तक कि मुक्ति को भी प्रदान करने वाली यह अहिंसा है । यह अहिंसा अहिंसक पुरुष के चित्त को रमाने के लिए कांता की तरह है । जैसे रमणी स्त्री पुरुष के चित्त को रमाती है और अनेक अंशों में तो पुरुष की स्थिरता का कारण भी स्त्री पड़ती है, तो जैसे कांता गृहस्थ पुरुष को रमण करने के लिए समर्थ है, उसके चित्त को रमाती है इसी प्रकार यह अहिंसा भी अहिंसक ज्ञानी पुरुष को रमाती है, उसके मन को स्थिर करती है, उसके दोषों को दूर करके एक परम विश्राम लेता है । और, यह अहिंसा सत्पथ का प्रकाश करने के लिए सरस्वती की तरह है । जैसे सरस्वती अर्थात् प्रभुवाणी ऋषि पुरुषों के वचन सत्पथ का प्रकाश कराते हैं इसी प्रकार अपने आपमें आशय स्वच्छ हो, विशुद्ध भाव हो तो यह परिणति स्वयं सन्मार्ग दिखा देती है कि यह सत्पथ पर चले ।
अहिंसा ही उत्कृष्ट विभूति ― यों अहिंसा एक बहुत उत्कृष्ट विभूति है । जो लोग इस अहिंसा का पालन करते हैं वे इस आत्मा का ध्यान कर सकते हैं । यह ध्यान का ग्रंथ है । ध्यान का उपाय बताया है । ध्याता पुरुष को अपनी कैसी चर्या रखनी चाहिए, अपना जीवन कैसे रखे कि वह ध्यान का पात्र हो सके तो वह है यह अहिंसा । लोक में किसी ढंग से यदि वैभव बढ़ा लिया अनीति से अन्याय से किसी भी प्रकार तो यह वैभव आत्मा का क्या काम देगा ? न तो जीवन में शांत रहता है और न उसका मरणकाल भी समता में व्यतीत होता है । वे पुरुष धन्य हैं जो प्रत्येक परिस्थिति का भी मुकाबला करते हुए अपने संयमव्रत को नहीं छोड़ते हैं, वे पुरुष अहिंसक हैं । उनको आत्मा का ध्यान होना सुगम है । तो ध्यान की सिद्धि चाहने वाले पुरुषों को अपना आचरण ऐसा विशुद्ध अहिंसापूर्ण बनाना चाहिए । यद्यपि जीव सब दोषों के घर बन रहे हैं । मनुष्य भी अनेक प्रकार के पापों का घर बना हुआ है, लेकिन उद्धार तो पतितों का हुआ ही करता है । जो जीवन गया, क्या किया उसमें ॽ अपने भावों को ही खोंटा बनाया ।
निर्मल परिणामों से समस्त अपराधों का मिटाव ― तो जिस काल से अपने भाव निर्मल बना लें तो खोटे भाव बनाने के सब अपराध दूर हो जाते हैं । जब चेते तभी भला । कितना ही समय गुजर गया पापों में लगकर लाभ की बात कुछ न पाया, कुछ क्षण धार्मिक वृत्ति से बिताये जायें, रत्नत्रय के आचरण से बिताये जायें तो आखिर वे अपराध भावों के ही तो किए गये थे, जब भाव निर्मल हो गए तो वे अपराध भी समाप्त हो जायेंगे, इस कारण ऐसा उत्साहहीन न होना चाहिए कि हमारा जीवन अब तक बहुत व्यसनों में व्यतीत हुआ या अन्याय में गुजरा, पापों में व्यतीत हुआ, अब हम क्या कर सकेंगे । करने की बात तो यह है कि यदि कोई अर्ंतमुहूर्त भी बड़ा विशुद्ध निर्मल परिणाम करे तो उसके भव-भव के बाँधे हुए पाप भी कट जाते हैं । इस कारण जो गया, जो व्यतीत हुआ, जो अपराध किया उन अपराधों के कारण हमें निरुत्साह न होना चाहिए । अब से ही अपना समय धार्मिक व्यतीत करें, आत्मदृष्टि में लगायें, सत्य तत्त्व की खोज में अपना उपयोग लगायें, अपने आपका अनुभव बनायें तो अब भी समय है कि हम अपना उद्धार कर सकते हैं । यह अहिंसा इस प्राणी को उद्धार करने के लिए माँ की तरह है ।