वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 518
From जैनकोष
स्वान्ययोरप्यनालोक्य सुखं दुखं हिताहितम् ।जंतूं य: पातकी हन्यात् स नरत्वेपि राक्षय:॥518॥
आंतरिक बल की कमी ― जो पापी मनुष्य अपने और विरुद्ध सुख दु:ख हित अहित का विचार नहीं करते और जीवों को मारते हैं वे भले ही मनुष्य कहलायें मगर वे राक्षस हैं । अनेक ऐसे मनुष्य हुए जिन्हें लोग राक्षस कहा करते थे । जैसे उपन्यासों में, इतिहास में अथवा पुराणों में कहीं-कहीं राक्षसों की बातें लिखी हैं, वहाँ राक्षस रहते थे जो मनुष्यों को मारते थे, खाते थे । तो वे राक्षस कोई क्रूर मनुष्य पहलवान, बलवान मनुष्य हुआ करते थे, वे माँस खाने के शौकीन थे, वनस्थली में निवास किया करते थे । जो वहाँ से गुजरा उसे मार खाया । तो मनुष्यजन्म पाकर भी वे राक्षस कहलाये जो सुख दु:ख हित अहित का विचार न करके प्राणियों को मारते थे । यदि मनुष्य होते तो वे अपना हित अहित तो विचारते । वे बहुत से प्राणियों का घात किया करते थे और शस्त्रविद्या में अति निपुण बन जाते थे । आज के समय में महत्ता न रही तो लोग यह चर्चा करते हैं कि जो मुर्गा मुर्गी को भी मारने से डरें वे सैनिक नहीं बन सकते हैं और जिन्हें वीरता प्राप्त करना हो उन्हें ऐसे जीवों के मारने में हिचकिचाहट न रखना चाहिए, तब वे युद्ध में वीरता प्राप्त कर सकते हैं । ऐसा विचार लोग रखते हैं, किंतु पूर्वकाल में वह समय था कि इतना तो निपुण होते थे, युद्ध में कुशल होते थे फिर भी शिकार खेलना, माँसभक्षण करना उनमें न चलता था । अब उस तरह का लोगों में आंतरिक बल नहीं है, उस तरह की लोगों में अब विचारधारा नहीं है तो भले ही जीवन लौकिक हिसाब से मौज में कैसा ही व्यतीत हो, लेकिन आत्मध्यान के पात्र नहीं बन पाते । और, किसी भी क्षण सारे संकटों से दूर हो सकें ऐसी वृत्ति नहीं बना सकते ।ज्ञानपुंज रुप अनुभव करने से संकटों की समाप्ति ― मनुष्य कितनी भी चिंतावों में ग्रस्त हो, अनेक विपदायें भी शिर मंडरा रही हों उस काल में भी यदि यह जीव सर्व ओर से चित्त समेटकर अपने आपको केवल ज्ञानानंद स्वभावमात्र प्रतीति में ले, ऐसा ही अनुभव करे कि मैं तो सबसे न्यारा केवल एक ज्ञानपुंज हूँ तो उस ही क्षण में उस दृष्टि के बल से सारे संकट दूर हो जाते और हल्के हो जाते हैं और यह औषधि प्रत्येक कल्याणार्थी गृहस्थ को दिन में, सप्ताह में, पक्ष में, महीने में कभी तो करना चाहिए । बाहर-बाहर के पदार्थों में ही उपयोग फँसाये रहने से तो किसी भी समय आराम नहीं पाया जा सकता । जिसे एक शुद्ध आराम कहते हैं जो अनुपम है, सही दिशा की ओर ले जाने वाला है, सद्गति को देने वाला है ऐसा भोग ऐसा आराम वह गृहस्थ नहीं पा सकता, जिसको अपने स्वरूप की कोई धुन ही नहीं बनती, दृष्टि नहीं बनती, परिचय ही न हुआ हो ।