वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 520
From जैनकोष
जायंते भूतय: पुंसां या: कृपाक्रांतचेतसाम् ।चिरेणापि न तां वक्तुं शक्ता देव्यापि भारती ॥520॥
परिणाम शुद्धि का चमत्कार ― जिनका चित्त दयालु है उन पुरुषों को जो संपदा विभूति प्राप्त होती है उसका वर्णन सरस्वती देवी भी बहुत काल तक करे तो भी नहीं कर सकती । सारे अतिशय सारे चमत्कार इस आत्मा में पड़े हुए हैं । जो लोक में बड़े-बड़े चमत्कार माने गए हैं, भौतिक चमत्कार माने गए हैं, भौतिक चमत्कार तो यद्यपि उन पुद्गलों में ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है तिस पर भी उनका आविष्कार करने वाला, प्रयोग करने वाला तो जीव ही हुआ, आत्मा ही हुआ । सब चमत्कारों की जड़ तो यह आत्मा हुआ । और, जब आत्मा में शुद्ध आशय हो जाता, स्वच्छता प्रकट होती है तो उस आत्मा का ऐसा प्रभाव बढ़ता है कि लौकिक चमत्कार पैदा हो जाते है, तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है तो स्वर्गों के देवों में भी एक खलबली मच जाती है, इंद्र आकर चरणों मे नमस्कार करते हैं, समारोह मनाते हैं । यह सब प्रताप किसका है ॽ परिणाम विशुद्ध है, लोकोपकार की उनकी भावना है, प्राणियों के उद्धार की भावना है, साथ ही सम्यक्त्व निर्मल था, उसका परिणाम विशुद्ध था, उसका यह प्रताप है । तीनों लोक के प्राणी उनके चरणों में नमस्कार करते हैं । तो अपनी परिणति विशुद्ध बने इस कार्य के करने पर चाहे लोक में कोई इज्जत न भी करे लेकिन ज्ञानी जीव इसकी परवाह नहीं करता ।
दया भाव रखने में हित ― इन दृश्यमान मनुष्यों के आधीन हमारे प्राण या भावना निर्भर नहीं है । ये जगत के प्राणी खुद संसार में जन्म मरण करने वाले हैं, संसार चक्र में रुलने वाले हैं, दु:ख का बोझ ढोने वाले हैं । इनको प्रसन्न करने के लिए हम क्यों विकल्प बनायें ॽ हमारा जिसमें हित हो वही करना हमारा कर्तव्य है । तो धर्म की पात्रता दया से प्रारंभ होती है । लौकिक भी दया हो, व्यवहार भी दया हो और ज्ञानप्रकाश में सहज बसने वाली भी दया हो । दया बिना धर्म का प्रारंभ नहीं होता, और परिस्थिति ऐसी है कि लोग दया को धर्म कहते हैं । हम छोटे बड़े प्रत्येक जीव के प्रति दया का भाव रक्खें । बड़ों के प्रति दया का भाव रखें वह तो एक व्यवस्था की बात है फिर भी छोटों के प्रति तो दया रखें ही और समय आने पर छोटे भी बड़ों के काम आते हैं । तो बड़े पुरुष भी यदि हमें सतायें या हमारा अपराध करें, हमारे से विरोध रखें तिस पर भी हम छोटे होकर भी ऐसा साहस और आशय बनायें कि हम उसका विरोध न करें, उसके प्रति द्वेष न रखें और कभी कोई समय आये, यह बड़ा भी विपदा में हो तो हम उसके काम आ सकें, इतना पवित्र आशय ज्ञानी पुरुष के होता है । यही दया का परिणमन हुआ । तो जिस पुरुष का चित्त दयालु है उसको अंतरंग और बहिरंग जो समता प्राप्त होती है उसका वर्णन करने के लिए सरस्वती भी असमर्थ है । अहिंसा हमारा बड़ा चमत्कार है और आत्मा के उद्धार करने में समर्थ है इसी कारण इसे माता की तरह हितकारिणी माना है ।