वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 521
From जैनकोष
किं न तप्तं तपस्तेन किं न दत्तं महात्मना ।वितीर्णमभयं येन प्रीतिमालंब्य देहिनाम् ॥521॥
अभयदान का अर्थ ― जिस महापुरुष ने जीवों को प्रेम का आलंबन देकर अभयदान दिया है उस महात्मा पुरुष ने कौन सा तप नहीं किया, अर्थात् दूसरे जीवों को अभयदान करने में समस्त तपों का फल आ जाता है और उस पुरुष ने कौन सा दान नहीं किया ॽ जिस पुरुष ने जीवों को अभयदान दे दिया है उसने सभी तप कर लिया और सभी दान कर लिया, क्यों कि अभयदान में सभी तप और दान गर्भित हो जाते हैं । अभयदान नाम है ऐसी परिणति करना, ऐसा प्रयत्न करना, ऐसा अंतरंग का भाव बनाना जिससे सभी जीव उसके प्रति निशंक और निर्भय रहें । किसी भी जीव को मुझ से भय उत्पन्न न हो, ऐसी परिणति भी बनायें तो यह बहुत बड़ा तपश्चरण है ।
उदारता की आवश्यकता ― यह तपश्चरण बहुत कुछ तो गृहस्थावस्था में भी किया जा सकता है, व्यर्थ की ऐसी बात क्यों करना जिनमें कोई सार नहीं, केवल बात की बात । केवल एक मायिक की हठ है । और उस हठ में और व्यर्थ की बातों में लोगों को शंका हो, भय हो, विरोध हो बुरा मानें । अपने द्वारा किसी भी जीव का दिल न दु:खे ऐसा भाव बने और ऐसा ही यत्न भी हो । चाहे किसी परिणति में खुद के मन को दबोचा जाय, कुछ कष्ट का अनुभव कर ले लेकिन किसी भी प्राणी को ऐसी बात न कही जाय जिससे वह दु:खी हो । और, खासकर जिसमें कुछ सार नहीं, न अपनी आजीविका का कोई संबंध है, और न कोई रत्नत्रय के विघात का भी भय है और फिर भी व्यर्थ की ऐसी बात करना जिससे खुद भी शल्य में रह जायें और दूसरे लोग भी मेरे प्रति निर्भय न रह सकें यह बात तो सर्वथा ही आवश्यक है । जिस पुरुष ने दूसरे जीवों को अभयदान दिया उस पुरुष ने मानों सभी तो तप कर लिया और सभी दान कर लिया ।
कल्याणार्थी गृहस्थ का कर्तव्य ― कल्याणार्थी पुरुष का कर्तव्य है कि अपना जीवन इस प्रकार बनाये कि जिसमें दूसरे जीव उसके प्रति निर्भय रह सकें । गृहस्थावस्था में तो यदि कदाचित् किसी की परिणति से तुम्हारी आजीविका का घात होता है तो भले ही उसकी प्रतिक्रिया कर ले अथवा किसी दूसरे की किसी परिणति से हमारे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप धर्म में विघ्न आता है तो भले ही प्रतिक्रिया करले किंतु जहाँ न आजीविका का घात है और न धर्म का ही घात है और फिर भी मौज में अज्ञान में आकर हठी बनकर कोई वार्ता ऐसी करना जिसमें दूसरे जीवों को बुरा मानना पड़े, वह तो गृहस्थों को भी उचित नहीं है ।
बाह्यस्वरूप से ही साधु अभयदानी ― साधु संतजनों का तो बाह्यस्वरूप भी ऐसा है कि जिसको देखकर दूसरे प्राणी भय न खायें । केवल शरीरमात्र ही जिसका परिग्रह है, कमंडल, पिछी और शास्त्र ही जिसका उपकरण है, न लाठी है, न शास्त्र है, न शरीर का विडरूप है, न चेहरा ऐसा अनाप सनाप है जिससे लोग भय खायें, ऐसी शांत मुद्रा संपन्न निर्ग्रंथ दिगंबर साधुजनों का तो भेष ही अभयदान को दे रहा है । जिसके अभयदान की प्रकृति है, संसार के किसी भी जीव को न सताने की जिसके मन में प्रतिज्ञा है, ऐसा पुरुष ऐसा शांत और सौम्य समतामय बन जाता है कि वह आत्मा के ध्यान का पात्र होता है और आत्मध्यान से ही सर्वसमृद्धि प्राप्त होती है ।