वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 522
From जैनकोष
यथा यथा हृदि स्थैर्यं करोति करुणा नृणाम् ।तथा तथा विवेकश्री: परां प्रीतिं प्रकाशते ॥522॥
करुणाभाव से विवेक की वृद्धि ― पुरुषों के हृदय में जैसे-जैसे दयाभाव बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे विवेकरूपी लक्ष्मी भी उससे परम प्रीति प्रकट करती रहती है । विवेक आत्मा में कब स्थिर रहता है जब कि करुणाभाव जागृत हो । जिस जीव के खुदगर्जी बहुत है, दूसरों के हित का विचार रंच नहीं है ऐसे पुरुष के हृदय में विवेक भी जागृत नहीं होता । विवेक बढ़ाने का मूल है करुणाभाव । दयाभाव हो तो विवेक की वृद्धि होती है । निर्दय पुरुष के कुछ भी विवेक नहीं हैं । और अविवेकी पुरुषों की संगति धोखा और क्लेश को देने वाली होती है । जो विवेकहीन पुरुष हैं, दयाहीन पुरुष हैं ऐसे पुरुष क्षण में रुष्ट और क्षण में तुष्ट हो जाते हैं, उनके रोष तोष का भी विश्वास नहीं है जिनके रोष तोष का विश्वास नहीं उनके निकट कहाँ अभय प्राप्त हो सकता है । आज खुश है, थोड़ी देर बाद कहो ऐसा रुष्ट हो जाय कि महान अनर्थ कर दे । तो जिसके चित्त में दया नहीं है उसमें विवेक उत्पन्न नहीं हो सकता । जीव का धन विवेक है । शांति का उदय विवेक से ही हुआ करता है ।
आत्मस्वरूप की उपासना, शाश्वत आनंद का उपाय ― बाहरी संपदा जो जहाँ है जैसी है तैसी पड़ी है । उनका स्वरूप उनमें है । ये सब दृश्यमान पदार्थ जड़ हैं, इनका रूप, रस, गंध, स्पर्श ही स्वभाव है, परिणमन है । इसके अतिरिक्त उन पदार्थों में और कुछ नहीं होता । उनमें आनंद नामक और कोई गुण है ही नहीं, फिर उनसे आनंद आत्मा में कैसे प्रकट हो ॽ बात तो यह है कि आत्मा आनंदस्वरूप है और विषय कषाय पर का उपयोग बाह्यदृष्टि आदिक अंधकारों के कारण इसका आनंदगुण दबा हुआ है, इतने पर भी विषयों के भार से आनंदगुण का विकृत अनुभव फिर भी होता रहता है । यदि यह जीव बाह्यपदार्थों से कुछ भी आशा न रखे, सर्वविकल्पों को तोड़कर अपने आपके स्वरूप में मग्न हो जाय तो इस ही जीव को अपने आप अनंत आनंद प्रकट होगा ।
आत्मा का विश्लेषण करो ― आनंद किसी बाहरी पदार्थ से प्राप्त नहीं होता, आनंद तो आत्म का स्वरूप ही है, आत्मा के स्वरूप में दो बातें मुख्य हैं ― ज्ञान और आनंद । जिस किसी दूसरे पदार्थ का निर्णय करना है उसके गुण का विश्लेषण करके जरा अपने आपमें बसे हुए आत्मा का विश्लेषण तो कीजिए । आत्मा किस रूप है ॽ यहाँ रूप, रस, गंध, स्पर्श कुछ भी नहीं है और न कुछ पिंडरूप है, न यह सुना जाता है किंतु एक जाननस्वभाव है, अब समझ लीजिए केवल जानन क्या कहलाता है, एक ज्ञानप्रकाश । जैसे किसी सम्मुख ठहरे हुए पदार्थ को जान लिया तो बतलावो उस पदार्थ का क्या कर लिया ॽ जानन का क्या अर्थ है ॽ जानन एक अमूर्त परिणमन है । ऐसे निर्भार जानन परिणमन होना बस यही एक आत्मा का कार्य है और ऐसा ज्ञान ही आत्मा का स्वभाव है, तथा इस ज्ञान के साथ ही साथ आनंद भी चलता रहता है । जहाँ रंच भी आकुलता नहीं है उसे आनंद कहते हैं । केवल जहाँ जाननप्रकाश है, निसीम निर्बाध केवल ज्ञानज्योति का ही प्रकाशमात्र है, वहाँ रंच भी आकुलता नहीं है, ऐसा ज्ञान और आनंदरूप परिणमन करने की आत्मा का स्वभाव है । आकुलता नहीं है, ऐसा ज्ञान और आनंदरूप परिणमन करने का आत्मा का स्वभाव है । ऐसा जिसका जो स्वभाव होता है वह निरपेक्ष हुआ करता है । किसी पदार्थ की अपेक्षा रखने से नहीं होता ।
करुणावान के आनंद की प्राप्ति ― मैं ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, मुझमें ज्ञान और आनंद मेरे ही आश्रय से प्रकट होता है, किसी परपदार्थ के आश्रय से नहीं । ऐसे इस आत्मतत्त्व को कौन प्राप्त कर सकता है ॽ जिसके चित्त में करुणा बसी हो, नम्रता बसी हो, सब जीवों के स्वरूप को अपने समान मानता हो ऐसे महात्मा के ही यह आत्मध्यान जगता है । वैसे भी इस जीव को केवल अपने आत्मप्रभु का ध्यान है । रोज-रोज अनुभव किया तो जाता है, कितने-कितने राग कर लिये जाते हैं, उस रूप से भी कोई ऐसी बात कर ली हो जिससे यह कह सकें कि हमने अपने आपका इतना तो निर्माण कर लिया, इतनी तो उन्नति कर ली, जिसमें कुछ गिरने का कोई संदेह ही नहीं है । कुछ लाभ मिला हो तो बतावो ॽ अथवा किसी भी प्रतिकूल परिणमन करने वाले से द्वेष किया है, अनेक से द्वेष और विरोध रखा है, उन द्वेष और विरोध भरी बातों से हमने अपने आत्मा में कोई उन्नति की हो, लाभ अपना पाया हो तो बतावो ।
रागद्वेष से अपनी बरबादी ― रागद्वेष मोह करके यह जीव स्वयं को बरबाद ही कर रहा है, लाभ कुछ नहीं मिलता । उन सबसे हटकर अपने आपके स्वरूप की ओर आयें तो यह अपने लिए शरण है । तो आत्मध्यान ही हमारा परमशरण है, वही सच्चा गुरु है, वही आनंद का देने वाला है । उस आत्मध्यान का प्रयत्न करना ही अपना कर्तव्य होना चाहिए । उस आत्मध्यान को पाने के लिए हमारी कैसे प्रगति हो उसका यह वर्णन चल रहा है । दया से भरी हुई प्रकृति हो, चित्त में कठोरता न हो, दूसरों को सुखी करने के लिए, दूसरों को निर्भय बनाने के लिए खुद अपने मन को मारना पड़े, अपने को नम्र बनना पड़े, अपने को अपमान सा जंचें, उन सबको पसंद कर लीजिए, पर किसी भी प्राणी को मेरे निमित्त से भय उत्पन्न न हो ऐसी अपनी दृष्टि बनायें ।
परम विवेक ― पुरुषों के हृदय में जैसे जैसे नम्रता करुणा बढ़ती जाती है वैसे ही विवेक भी बढ़ता जाता है, और विवेक में परम विवेक तो यह है कि सबसे पहिले अन्य पदार्थों से अपने को भिन्न परखकर एक कृतार्थता का विश्राम प्राप्त करें, और फिर सबसे न्यारा परखे हुए अपने ज्ञानस्वभाव की ही दृष्टि बनाकर अपने में प्रसन्नता बढ़ायें, निर्मलता बढ़ायें, यही है परम विवेक । संसार में भ्रमण करते-करते आज मनुष्य जन्म पाया है । सोचिये तो सही कि मनुष्यजन्म को प्राप्त कर लेना कितनी बड़ी भारी निधि है । निगोद से निकलना कठिन, अन्य स्थावरों से निकलना कठिन, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, असंज्ञीपंचेंद्रिय, यहाँ तक तो कोई विवेक का काम ही नहीं है । संज्ञी पंचेंद्रिय भी हों उनमें भी देखिये सबसे अधिक उद्धार का पात्र मनुष्य है । जहाँ संयम की पात्रता भी हो सकती है, जहाँ श्रुतकेवलीपना भी प्रकट होता है ।
दयावान के आत्मध्यान ― ऐसे इस मनुष्य जन्म की प्राप्ति कर लेना, सोचिये तो कितनी उत्कृष्ट विभूति की बात है और फिर मनुष्य होकर भी ऐसा विशुद्ध जैनशासन मिला है जिसके पर्व में अहिंसा, जिसके मंदिर दर्शन में अहिंसा, जिसकी पूजा में अहिंसा, जिसके तीर्थ में अहिंसा, सर्वत्र अहिंसा का ही जहाँ दर्शन है, आत्मज्ञान का ही जहाँ सर्वत्र प्रचार है, मोक्षमार्ग का जिसमें यथार्थ उपदेश है ऐसा जैनशासन पा लेना यह कितना उत्कृष्ट वैभव पा लेने की बात है । यह न मानो कि धन वैभव कोई महत्त्व की चीज है । महत्त्व अपने इस नरभव का और जैनशासन के लाभ का करिये । इसके आगे अन्य सब हेय पदार्थ हैं । दुनिया के लोग जो स्वयं अज्ञान अंधकार में डूबे हैं उनसे किस बात की आशा करते हो ॽ वे मेरे इस मायामयी नाम का बखान कर दें, इतने में राजी होना महामूढ़ पुरुषों का काम है । तो इस नरभव की सफलता तो आत्मध्यान में है और आत्मध्यान करुणाशील पुरुष ही कर सकते हैं । अतएव अपने चित्त को करुणा से भरियेगा । दयालुता से धर्म का प्रारंभ होता है, सभी शासन कहते हैं । दया से ही तप, व्रत, दान, संयम सबकी शोभा है और यह दया ही आत्मा के ध्यान में कुशल बनाने के लिए जड़भूत हैं ।