वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 525
From जैनकोष
यत्किंचित् संसारे शरीरिणां दु:खशोकभयबीजम् ।दौर्भाग्यादि समस्तं तद्धिंसासंभवं ज्ञेयम् ॥525॥
सर्वविभूतियों का कारण अहिंसा धर्म ― लोक में जितनी भी समृद्धि हैं वे सब अहिंसा से मिलती हैं । जीव का परिणाम ज्ञानमय बने, अहिंसक बने, वैराग्यपूर्ण बने तो उस भाव के निमित्त से साताकारक कर्म का बंध होता है और उसके उदय में लौकिक समृद्धि प्राप्त होती है और फिर इस ही ज्ञानभावना के प्रसाद से निर्वाण भी प्राप्त होता है । तो जितनी भी सुख समृद्धि प्राप्त होती हैं वे सब अहिंसा से होती हैं, इसी प्रकार संसार में इस प्राणी को कितने भी सुख दु:ख शोक भय होते हैं अथवा दु:ख शोक भय उत्पन्न करने वाले कर्म बंधते हैं वे सब एक हिंसा से ही बंधते हैं । जो पुरुष हिंसा में अपना परिणाम रखते हैं वे आत्मा का ध्यान कर लें अथवा आत्मा की कुछ प्रतीति भी कर सके यह बात नहीं बन सकती । अतएव जिन पुरुषों को सुख शांति चाहिए उन्हें यह निर्णय करना होगा कि शांति केवल आत्मध्यान से ही प्राप्त हो सकती है । एक आत्मतत्त्व का ध्यान त्यागकर किन्हीं भी परपदार्थों में इस उपयोग को लगाया जाय तो वहाँ केवल विह्वलता ही अधिक रहती है । भला आनंद के निधान अपने स्वरूप से चिगकर जहाँ आनंद नहीं है ऐसे परतत्त्वों में अपना उपयोग फँसाये कोई तो वह आनंद कहाँ से पायेगा ॽ आनंद निधि तो यह स्वयं आत्मा है ।