वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 526
From जैनकोष
ज्योतिश्चक्रस्य चंद्रो हरिरमृतभुजां चंद्ररोचिर्ग्रहाणाम् कल्पांगं पादपानां सलिलनिधिरपां स्वर्णशैलो गिरीणाम् ।
देव: श्रीवीतरागस्त्रिदशमुनिगणस्यात्र नाथो यथाऽयम्
तद्वच्छीलव्रतानां शमयमतपसां विद्धयहिंसां प्रधानाम् ॥526॥
धार्मिक कार्यों में अहिंसा की प्रधानता ― जितने भी कल्याणपद धार्मिक कार्य हैं उन सबमें प्रधान अहिंसा को ही जानो । धर्म के नाम पर बहुत-बहुत बड़े समारोह व्रत उपवास आदि किये जायें और चित्त में दया न हो, अहिंसा का भाव न हो, नम्रता न हो, आत्मज्ञान में प्रकाश न हो तो उन सब कृत्यों से क्या लाभ है ॽ जैसे की समस्त ज्योतिषी देवों में प्रधान चंद्र है, ज्योतिषी देवों के विमान 5 प्रकार के होते हैं ― सूर्यविमान, चंद्रविमान, नक्षत्र के विमान, ग्रह के विमान और अनेक छोटे-छोटे तारागण । इन सबमें प्रधान है चंद्रविमान । सूर्य और चंद्र में इंद्र तो है चंद्रमा और सूर्य है प्रतींद्र अर्थात् बड़ा है चक्रदेव और उसका निकटवर्ती है सूर्य । इंद्र और देवेंद्र । ज्योतिषियों में जैसे प्रधान चंद्रमा है इसी प्रकार समस्त प्रकार के कल्याण के कार्यों में प्रधान है अहिंसा । जैसे देवों में प्रधान है इंद्र । जैसे यहाँ जनता और राजा, इसी प्रकार स्वर्गलोक में देव और इंद्र होते हैं । इंद्र का सब देवों पर हुक्म चलता है । इंद्र की सेवा में सब देवों को रहना पड़ता है । तो जैसे उन देवों में प्रधान है इंद्र, ऐसे ही कल्याणक आदि समस्त धर्मकार्यों में प्रधान है अहिंसा का कार्य ।
अहिंसा पद्धति बिना सारे कार्यों की निष्फलता ― एक अहिंसा की पद्धति न रखे और धर्म के नाम पर कितने ही कार्य करे तो वे धर्म नहीं हो सकते । जैसे अनेक जगह देखा जाता है कोई पशुबलि करता, कोई किसी प्रकार मानो कोई खाने पीने प्रसाद आदि में अपना धर्म समझते हैं । तत्त्वज्ञान जगे और आत्मा के निकट उपयोग चले, वैराग्यभाव आये ऐसी वृत्ति की तो कोशिश नहीं करते, किंतु बाहरी भोगप्रसाद ― भगवान अब सो रहे हैं, भगवान अब बालक बन गए हैं आदिक आडंबर रचते हैं, केवल अपने दिल बहलावा के लिए धर्म का ढोंग रचते हैं । तो धर्म यहाँ नहीं है । धर्म वहाँ होता है जहाँ ज्ञान और वैराग्य का अंश भी तो जगे । समस्त कल्याणप्रद कार्यों में प्रधान इस अहिंसा को माना है ।
पंचकल्याणक के उत्सव में भाव ― पंचकल्याणक के उत्साहों में देखिये ― भाव तो यह है कि मूर्ति की प्रतिष्ठा कर रहे हैं और मूर्ति में प्रभु की स्थापना कर रहे हैं । यों यदि कोई मूर्ति ही लाये और मान लेवे कि अमुक भगवान हैं, इस तरह से अपने आप स्थापना कर ले तो उसमें अतिशय नहीं बनता । अतिशय का मतलब है कि सर्वलोगों का आकर्षण बने बिना बात नहीं बन पाती इसीलिए एक विशेष आयोजन होता है और उसमें वे सब क्रियाएँ दिखाई जाती हैं । वहाँ दिल बहलावा का लक्ष्य नहीं रहता, किंतु सभी श्रोतावों का और सभी दार्शनिकों का लक्ष्य प्रभु के चरित्र पर उत्तरोत्तर अब जाप होना है, अब तप होना है, अब निर्वाण होना है इस तरह धार्मिकता का संबंध रहता है, और मूल प्रयोजन है मूर्ति प्रतिष्ठा जिसके अवलंबन से अनेकों वर्ष तक एक परंपरा जैनशासन की चलती रहे । तो जिन कार्यों में ज्ञान और वैराग्य का संबंध नहीं है वे कार्य धर्म के नाम पर किये जायें तो वे धर्मरूप नहीं हैं । जैसे ग्रहों में सूर्यप्रधान है ― 9 ग्रह होते हैं, उन 9 ग्रहों में चंद्र भी ग्रह माना, सूर्य भी ग्रह माना, पर चंद्र को प्रधानग्रह माना है, इस कारण समस्त ज्योति चक्र में चंद्र को प्रधान माना गया है । केवल ग्रह ग्रह की अपेक्षा सूर्य जैसे प्रधान माना जाता है इसी प्रकार समस्त व्रत और तपों में अहिंसा को प्रधान समझते हैं ।
कल्पवृक्षों से अहिंसाधर्म की तुलना ― वृक्षों में कल्पवृक्ष प्रधान है, कल्पवृक्ष उसे कहते हैं कि जिसके निकट जावो और जो चीज चाहो सो मिल जाय । धर्मपरंपरा में भोगभूमि में कल्पवृक्ष बताया । स्वर्गों में कल्पवृक्ष होते हैं तो उनके निकट पहुँचने पर अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है । यों कल्पवृक्ष माने गए हैं । कहीं वनस्पतिकाय को कल्पवृक्ष बताया, कहीं पृथ्वीकाय को कल्पवृक्ष बताया । और आधुनिक विचारों में यों माना है कि कोई फल फूल से लदे हुए इस प्रकार के वृक्ष होते हैं कि उनके निकट जावो और उनसे अनेक तरह की चीजें ले लो । अनेक तरह के वृक्ष होते हैं । जैसे वस्त्र के वृक्ष । कपास पैदा होता है वे वस्त्र की ही चीज हैं, कुछ और विशेषता के साथ कुछ आकार प्रकार मे कपास आदि होते होंगे । तो आधुनिक विचार में लोग यों कहते हैं और परंपरा से कल्पवृक्ष इस तरह से बताये जाते हैं कि वे होते हैं क्रियात्मक । उनके निकट जावो तो जो चाहो सो मिल जाय । प्रयोजन यह है कि जैसे वृक्षों में कल्पवृक्ष प्रधान है इसी प्रकार व्रत और तप में अहिंसा प्रधान है ।
अन्य प्रधान मानी जाने वाली वस्तुवों से अहिंसा की प्रधानता ― जैसे जलाशयों में समुद्र प्रधान है इसी प्रकार समस्त व्रत तपों में अहिंसा प्रधान है । पर्वतों में प्रधान है मेरुपर्वत जहाँ अनादिकाल से तीर्थंकरों के अभिषेक होते चले आये हैं । ऐसे पर्वतों में प्रधान है मेरू पर्वत । इसी प्रकार व्रत तप आदिक सर्व में अहिंसा प्रधान है ।
वीतरागदेव से अहिंसा की तुलना ― देवों में श्री वीतरागदेव प्रधान हैं । भगवान कौन हो सकता है ॽ जिसमें सर्वगुण भरे हों, दोष एक भी न हों । यदि यह बात एक आमतौर पर सबको कही जाय तो सब मान लेंगे कि भगवान कैसे होते हैं ॽ जिसमें गुण तो समस्त हों और दोष एक भी न हो, इस बात को कोई इन्कार नहीं कर सकता । क्या कोई यह कह देगा कि नहीं-नहीं ― भगवान में कुछ-कुछ दोष भी होते हैं ॽ क्या कोई यह कहेगा कि भगवान में सारे गुण नहीं होते, कोई गुण कम भी होते हैं ॽ ऐसा कोई कहना पसंद न करेगा । चाहे भगवान का स्वरूप जान पाया हो या न जान पाया हो, मगर भगवान के बारे में सब यही कहेंगे कि जिसमें गुण पूरे हों और दोष एक भी न हो, वह है भगवान । दार्शनिक परंपरा में कह लीजिए कि जो निर्दोष है, सर्वज्ञ है वह भगवान है ।
गुणों में प्रधान है ज्ञानगुण जिस गुण के द्वारा आत्मा के सारे गुणों की व्यवस्था होती है । जिस गुण के कारण सर्वगुणों का अस्तित्व जाना जाता है अथवा अनेक अन्य गुण एक ज्ञान गुण की रक्षा और सत्ता के लिए ही हैं । यों ज्ञानगुण सब गुणों में प्रधान है । उस ज्ञान में पूर्णता जहाँ हो वह भगवान है । और, दोष है मोहरागद्वेष । इनका जहाँ लेश न हो वह भगवान है । तो जैसे देवों में श्री वीतराग सर्वज्ञ देव प्रधान हैं इसी प्रकार शील में, व्रत में, तप में सभी धार्मिक कार्यों में अहिंसा प्रधान है । इस प्रकार यह अहिंसा का प्रकरण समाप्त हो रहा है । यह अहिंसा का वर्णन क्यों चल रहा है ॽ यह ग्रंथ ध्यान का है और ध्यानों में प्रधान ध्यान आत्मध्यान है ।
आत्मध्यान ही शांति का कारण ― आत्मा का जो सहजस्वरूप है अपने आप ही सत्त्व के कारण जो अपने आपमें शाश्वत स्वभाव है उस रूप में अपने आपकी उपासना करना ‘यह मैं हूँ’ इस प्रकार का अनुभवन करना यही है आत्मध्यान । जीव को शरण आत्मध्यान ही है, निर्वाण का कारण आत्मध्यान ही है, शांति का उपाय आत्मध्यान है । इसके प्रसाद से जब तक संसार में रहना शेष है तब तक वैभव में इस जीव का समागम रहता है और अंत में निर्वाण प्राप्त होता है । तो आत्मध्यान कैसे बने, किसके बने उसका तंत्र उपदेश के प्रकरण में यह बात कही गई है । ध्यान के तीन अंग होते ― सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का तो वर्णन किया जा चुका था, अब सम्यक्चारित्र का वर्णन किया जा रहा है । उसमें सर्वप्रथम अहिंसा महाव्रत का वर्णन है । जो जीव ऐसा भावद्रव्यरूप अहिंसामय जीवन बनाता है उस अहिंसक पुरुष में आत्मध्यान की पात्रता होती है ।
अथ सत्यव्रतस्वरूपम्