वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 527
From जैनकोष
य: संयमधुरां धत्ते धैर्यमालंब्य संयमी ।
स पालयति यत्नेन वाग्वने सत्यपादपम् ॥527॥
मुनि की संयमधुरा ― सम्यक्चारित्र का दूसरा अंग है सत्य महाव्रत । सत्य महाव्रत के वर्णन में कह रहे हैं कि जो संयमी मुनि धैर्य का आलंबन करके संयम की धुरा को धारण करता है वह मुनि वचन रूपी वन में सत्यरूप वृक्ष को बड़े यत्न के साथ पालता है । संयम की धुरा है मुनिदीक्षा । संयम क्या चीज है इसे यदि स्पष्टरूप से शीघ्र समझना हो तो जो संयमी मुनि हैं उनका दर्शन कीजिए और उससे जान लीजिए कि संयम यह वस्तु है । समस्त परपदार्थों से चित्त को निवृत्त करके अपने उपयोग को अपने आत्मा में ही संयत किए रहना सो संयम है और ऐसे संयम की साधना के लिए जो व्यवहार में बाह्य अनेक प्रवृत्तियों से निवृत्ति करना सो बाह्य संयम है ।
सत्य महाव्रत ― सत्य महाव्रत में असत्य वचनों के परिहार की बात है । जिसमें धैर्य हो, जिसके संयम का भाव हो वह सत्य महाव्रत का भलीभाँति पालन करता है । असत्य का कोई प्रयोजन ही नहीं । असत्य का कोई अवकाश ही नहीं । संयम अवस्था में जहाँ बाह्यपरिग्रहों से कुछ प्रयोजन हो, परिग्रहों का संचय किया जाय किसी भी रूप में उस प्रसंग में असत्य का अवकाश होता है । जहाँ परिग्रहों से पूर्ण विरक्ति है, केवल एक ज्ञानस्वरूप आत्मा की साधना में ही रूचि बनी रहती है ऐसे शाश्वत तत्त्वों के रुचिया साधु संतों के असत्य बोलने का अवकाश ही कुछ नहीं है । वे असत्य वचनों से पूर्णरूपेण विरक्त रहते हैं । सत्य से आत्मा में एक बल प्रकट होता है । यह तो अनुभव करके देख लिया होगा या देख सकते हैं ।
असत्य से आत्मा का पतन ― कि जीवन में यदि असत्य का व्यवहार है जिसके मूल में मायाचार भी पड़ा हुआ है ऐसे असत्य व्यवहार में रहने पर आत्मा कुछ अपने को ऐसा लगने लगता है कि इसका कोई ठौर ठिकाना नहीं होता, कहीं विश्राम नहीं ले पाता, शांति का अनुभव नहीं होता । यह अपने घर में मौजूद है, निशंक और निर्भय अपने स्वरूप में है, ऐसा अनुभव करने का उनके अवसर ही नहीं आ पाता और जो सत्य व्रत का पालन करते हैं वे लोक में भी प्रतिष्ठा पाते हैं यह तो एक आमसंगिक फल है, पर साक्षात् फल यह है कि उन्हें अपने आपमें संतोष रहता है । और जैसे हम ठीक अपने पंथ पर है ऐसा उनके निर्णय नहीं रहता है। सत्यव्यवहार का बहुत ही मधुर परिणाम निकलता है ।