वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 533
From जैनकोष
यो जिनैर्जगतां मार्ग: प्रणीतोऽयंतशाश्वत: ।असत्यबलत: सोऽपि निर्दयै: कथ्यतेऽन्यथा ॥533॥
वस्तुस्वरूप ― सत्य का यथार्थ वर्णन करना सो सत्य है । जो पदार्थ जैसा है उसका वैसा ही वर्णन करने का नाम सत्य है और इस सत्य का जो जिनेंद्रदेव ने वर्णन किया है वह वस्तु के अनुकूल है किंतु ऐसे भी अत्यंत शाश्वत वस्तुस्वरूप को कुछ लोगों ने असत्य युक्तियों के बल से असत्य वर्णन किया है । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से सत् है परस्वरूप से असत् है । कोई पदार्थ किसी पर-उपाधि का निमित्त पाकर विकृत भी हो तो भी उपाधि का कुछ भी इस उपादान में नहीं आता है । ऐसा स्वतंत्र-स्वतंत्र समस्त वस्तुवों का परिणमन है । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से सत् है अतएव स्वतंत्र है, ऐसी परख हो जाने पर जीवों का मोह टूट जाता है । किससे मोह करना । किसी पदार्थ का कोई पदार्थ जब कुछ लगता ही नहीं है तो मोह किसमें हो । यह मैं आत्मतत्त्व जो अपने ज्ञानानंदस्वरूप से सहित है और अपने ही रूप में है, अत्यंत भिन्नस्वरूप है फिर ऐसा यथार्थ निर्णय होने पर कैसे यह कल्पना जगे कि यह देह मेरा है ।
ममता और अहंकार में दु:ख ― ममता और अहंकार से रहना यह तो महान अज्ञान अंधकार है । तो यथार्थ वस्तुस्वरूप के जानने से यह मोह दूर हो जाता है । मोह दूर होने से ही आत्मा को कल्याण प्राप्त होता है । आत्मा ही कल्याणस्वरूप है । स्वयं ही आनंद का धाम है, किंतु अपने आपकी सही प्रतीति न रखने के कारण और परपदार्थों में आकर्षण बनाने के कारण इसका आनंद सुख अथवा दु:ख रूप में प्रकट हो रहा है । भ्रम दूर करें, मोह रागद्वेष दूर हो जाये । तो मोह दूर होना, आकुलता समाप्त होना यह है शांति का विशदमार्ग लेकिन दयाहीन कुछ प्राणियों ने जिन्हें थोड़ी कुछ युक्तियाँ गढ़ने की प्रतिभा मिलती है उनको सत्य के बल से इस जैनमार्ग ने भी वर्णन किया है ।
विषयप्रवृत्ति और धर्मसाधन एक साथ नहीं ― इंद्रिय के विषय पुष्ट करने का तो ध्येय रहे और जगत में हम धर्मात्मा कहलायें ― इन दो बातों को एक साथ बनाने के लिए सिद्धांतों में कुछ न कुछ फेर करने की जरूरत पड़ती है । उसकी अवस्थावों का करने वाला कोई प्रभु है । इस मान्यता से अपने आपका विषय प्रवृत्त करने के लिए बचाव करने की बात सोची गई होगी । मेरा क्या अपराध ? जो कुछ कराता है प्रभु कराता है । विषयों के सेवन में भी लगूँ तो वह प्रभु की आज्ञा है । मैं तो सदैव निरपराध हूँ । यों अपने आपका बचाव करने की बात भी सोचें और धर्मात्मा भी बराबर जगत में कहे जायें यह बात सोची गई है । अथवा जीव भौतिक है, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु से मिलकर बना है और इस स्वरूप की शरण में अपने आपको तो धर्मात्मा भी साबित करते रहें, और जब यह जीव आगे रहेगा ही नहीं, पृथ्वी आदिक भूतों का विकार है तो उसके हित के लिए क्या सोचना, क्यों तप, यम संयम आदिक करना । यों इंद्रिय के विषयों का सेवन भी प्राप्त रहे और धर्मात्मापन भी रहे । किन्हीं पुरुषों ने तो यहाँ तक सोच डाला होगा कि माँस मदिरा आदिक का सेवन भी करते जायें और धर्मात्मा भी कहलाते जायें, इसके लिए क्या करना ? तो मनुष्य में बलि आदिक के रूप से वर्णन कर दिया, अथवा माँस मज्जा चरस आदिक सेवन करते हुए भी हम धर्मात्मा कहलायें इसके लिए किसी देवी देवता के सिर यह बात मढ़ दी कि वे भी भांग खाते हैं माँस खाते हैं चरस पीते हैं, और उनका नाम लेकर इनका सेवन करते जायें ।
मोह की बलवत्ता ― यों विषय कषाय में लीन पुरुषों ने अपने विषय कषाय पुष्ट करने के लिए उत्तम मार्ग का भी उत्थान करके उसे उठाकर फैंकने की कोशिश की और कुमार्ग पर चलाया, यह सब मोह का माहात्म्य है । जगत में मिथ्यात्व और मोह बड़ा बलवान है । कोई पुरुष स्वयं कुछ पाप कर रहा है तो उससे उसका ही बुरा है । और, किसी ने पाप भरी बातों का उपदेश शास्त्रों में भर दिया तो उसने स्वयं का भी अनर्थ किया और उस शास्त्र के रहने से जो-जो पढ़ेंगे, श्रद्धा करेंगे, चलेंगे उन सबका भी अनर्थ किया । इतनी महान् अनर्थ करने की बात करे कोई तो उसमें प्रबल मोह और मिथ्यात्व ही कारण है । सत्य के विरुद्ध यह जगत सब कुछ परिणति कर रहा है और सत्य के विरुद्ध जब तक प्रवृत्ति रहेगी तब तक आत्मा में ज्ञान का प्रकाश न होगा और न आत्मा में ध्यान बन सकेगा और आत्मध्यान बिना जगत के जीव यत्र तत्र भ्रमण कर अनेक जन्म मरण पाकर संसार में रुलते ही तो रहेंगे ।
शरणभूत चीज सत्य का आलंबन ― संसार के संकटों से छूटने का उपाय सत्य का आलंबन है । अपने आपमें ऐसा प्रकाश और समाधान रहना चाहिए कि कुछ भी परिस्थितियाँ आयें उन परिस्थितियों को हल करने के लिए हमने मनुष्य जीवन नहीं पाया किंतु सदा के लिए संसार के संकट टल जायें, एतदर्थ धर्म का आचरण करते रहें इसके लिए मनुष्य जीवन पाया है । परिस्थिति कैसी ही आये, मुझे इस लोक में अपना नाम न चाहिए, इज्जत पोजीशन रखने की हमारी भावना नहीं है । यह जगत स्वयं मायास्वरूप है । हमें किसको क्या दिखाना है, जो भी परिस्थितियाँ आयें उन सब परिस्थितियों में हम अपने प्राण रक्षा का गुजारा कर सकने में समर्थ हैं, और समस्त परिस्थितियों का हम साहस से मुकाबला कर सकते हैं । उन परिस्थितियों से घबड़ाकर बाह्य परिकरों में लग जाने के लिए हमारा जीवन नहीं हैं । हमारा जीवन हम आपके स्वरूप का सत्य अनुभव करके अपने में धर्म का अनुभव करें, आनंद का अनुभव करें इसलिए हमारा जीवन है । ऐसा साहस ज्ञानी पुरुष के होता है और यही सत्य का पालन है, जिस सत्य बोलने से कर्म झड़ते हैं, जन्म मरण दूर होता है ।