वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 534
From जैनकोष
विचर्य्यासत्यसंदोहं खर्लोक: खलैलीकृत: ।
कुशास्त्रै: स्वमुखोद्गीर्णैरुत्पाद्य गहनं तम: ॥534॥
दुष्ट पुरुषों द्वारा असत्यता का समर्थन ― दुष्ट और निसार पुरुषों ने असत्य का आंदोलन किया, असत्य प्रचार में अपना समस्त बल लगाया और काल्पनिक मिथ्या शास्त्रों द्वारा इस जगत में गहन अंधकार फैलाया और इस लोक को दुष्ट और निसार बना दिया है । जो लोग झूठे शास्त्रों का निर्माण करते हैं वे जगत के लिए कितना अनुपकारी है उसका दिग्दर्शन करा रहे हैं । जो पुरुष स्वार्थी होते हैं वे ऐसी ही दुष्टता करते हैं कि जिसमें दूसरों के हित का कोई ध्यान ही नहीं रखा जाता । जिस किसी भी प्रकार हो अपना स्वार्थ साधन होना चाहिए, ऐसे ही आशय से अनेक निर्दय पुरुषों ने खोंटे शास्त्रों की रचना की है । खोंटे शास्त्र वे है जिनमें ज्ञान के बजाय अज्ञान का पोषण हो, वैराग्य के बजाय राग का पोषण हो और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पापों का प्रश्रय मिला, ऐसे वि-वचन जिसमें लिखे हुए हैं वे सब कुशास्त्र हैं । भला कुछ अपनी ओर ध्यान देकर विचार तो कीजिए । हम मनुष्य हुए हैं, जीवन पाया है, जो आयु शेष है वह भी शीघ्र व्यतीत होने के लिए है । आयु क्षण-क्षण में नष्ट होती चली जा रही है । ज्यों-ज्यों आयु व्यतीत होती है त्यों-त्यों हम मृत्यु के सम्मुख जा रहे हैं । जीवन हमने किसलिए पाया ? अपने आपमें ऐसा साहस बनाएँ कि कुछ भी संकट आये वह संकट कुछ नहीं है, परपदार्थों के परिणमन हैं, संयोग वियोग की स्थितियाँ हैं । उन परिस्थितियों से इस ज्ञानानंदस्वरूप मुझ आत्मा का क्या अलाभ है । इसे कोई छति नहीं पहुँचती ।
आत्म ध्यान में शांति ― अपने आपके स्वरूप सत्त्व को विचारें । सबसे न्यारे ज्ञानानंद स्वरूप मात्र अपने आत्मा का ध्यान करें तो इससे तो हमें शांति मिलेगी, उद्धार होगा, बाकी तो सारे समागम जिनके पीछे ये संसारी प्राणी लगे हैं वे सब धोखे की बातें हैं । साथ ही यह भी तो ध्यान रखिये कि घर में जितने भी लोग हैं उन सब जीवों के साथ ही तो कर्म लगे हुए हैं । सबके कर्मों के अनुसार जो कुछ बात बनने को होगी वह बन जायेगी । मैं किसी का पालने वाला नहीं, किसी को सुख दु:ख देने वाला नहीं । कर्मोदय के अनुसार जब जीवों को ऐसे प्रसंग प्राप्त होते हैं जिनमें वे जिस प्रकार कर्मोदय है उस प्रकार रह जाते हैं । किसी के पालन का भार अपने आपमें न महसूस करें । हो रहा है सब उदयानुसार । मैं तो केवल विकल्प ही करता हूँ, अपने योग और विकार ही करता हूँ, इसके अतिरिक्त मैं किसी भी दूसरे प्राणी को कुछ नहीं किया करता । अपने आपको सबसे जुदा निर्लेप ज्ञाता दृष्टा मात्र निहारने का यत्न करें । जो सब लोगों के उदय में है वह बिना ही विचारे, बिना ही अभ्यास किए स्वयं भी प्राप्त होता है । सबकी बात है । मेरे तो केवल ये प्राण रह जायें और मैं धर्म में अधिकाधिक संलग्न होऊँ, इतना ही काम पड़ा हुआ है ।
यथार्थ ज्ञानप्रकाश में आत्मबल ― अपने आपकी दया करना यह बड़ा मुख्य कर्तव्य है । हम चिंताएँ करते हैं यह हम अपने प्रभु को दबाते हैं और अन्याय करते हैं । हम कल्पनाएँ मचायें, मोह रागद्वेष करें यह सब अपने आप पर अन्याय करना है । यथार्थ ज्ञानप्रकाश में बहुत बड़ा आत्मबल रखा हुआ है । रात दिन केवल धंधा कमाई आदिक में ही उपयोग रखें तो आत्मा को विश्राम कब दिया ? निरंतर विकल्पजालों से अपने आपको आक्रांत रखा । विश्राम कब लिया ? आत्मा का सत्य विश्राम तो उन परकीय विकल्पजाल छोड़कर निर्विकल्परूप से ठहराने में है । अपने आपका क्षणिक विश्राम हमें प्रतिदिन ही करना चाहिए । हम अपने आपमें विश्राम करें, यह तभी बन सकता है जब हम अपने सत्व का यथार्थ भान कर लें । इस सत्य का हम आंदोलन मचायें, इस आत्मसत्य का हम आग्रह करें, इस आतमसत्य के पालन के समक्ष हम समस्त सांसारिक समागमों को महत्वशील समझें। हम अपने आपके स्वभाव में उपयोगी बने यह महत्त्वपूर्ण उत्तम कार्य है । वैभव का अर्जन, वैभव की रक्षा ये सब तो गौण कार्य हैं । मुख्य कार्य तो हम अपने आपका सही श्रद्धान करें, ज्ञान करें और अपने आत्मतत्त्व में मग्न हों, यह है सही और आवश्यक कार्य ।
जीवन का मुख्य कार्य रत्नत्रय ― एक निर्णय भर तो बना लें कि मेरे जीवन का प्रयोजन तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई मेरे लिए मुख्य काम नहीं पड़ा हुआ है । देखिये इस प्रकार के अंतरंग फकीराना से आत्मा को कितनी शांति प्राप्त होती है । अरे मायामयी पुरुष विषयकषाय से भरे, जन्म मरण के दु:खी, संसार में रुलने वाले जीवों में हम अपना कुछ नाम रख लें, अपना यश बता दें ऐसा स्वप्नवत् एक कल्पनाजाल बनाकर अपने आपको कितना दु:खी कर डाला है इस जीव ने । सत्य आनंद तो अपने आपके स्वरूप के ज्ञानप्रकाश में है । रहीं बाहर की बातें, पोजीशन, वैभव सब कुछ, तो ये सब ज्ञान के विरोधी बातें हैं । सही ज्ञानरूप धर्म के पालन के समय पुण्यकर्म कभी हमारा विशेषरूप से बँधता है कि जिसके उदय में ही ये लोक के दुर्लभ बड़े-बड़े वैभव प्राप्त होते हैं । कोई जीव चक्रवर्ती बन गया तो उसने क्या किया ? क्या कमाई किया, क्या श्रम किया ? पूर्वभव का कर्म बंधन ऐसा ही अनुपम था कि वह चक्रवर्ती बन गया, तीर्थंकर बन गया । तो जीव करता क्या है ? सिवाय अपने परिणाम के और कुछ नहीं करता और ज्ञान परिणाम बना रहे उस काल में यदि कर्मबंध हुआ तो विशिष्ट पुण्यकर्म का बंधन होता है । सत्य-सत्य ही रहेगा ।
आत्मस्वरूप की उपासना में सर्वकल्याण ― आत्मस्वरूप की उपासना करने में ही सर्वकल्याण है, यह बात ध्रुव सत्य है । अपने आपका लक्ष्य यह बनाना चाहिए कि हम अपने आपका सम्यक्प्रकाश पायें, ज्ञान पायें, और अपने आपमें ही मग्न रहा करें इस निर्णय में तो रंच भी शंका न रखना चाहिए । हममें वह साहस है कि हम गरीबी का भी मुकाबला कर सकते हैं । हममें वह साहस ह, शक्ति है कि संसार के संयोग वियोग भी होते रहें, उसमें भी हम अपने आपको विचलित न कर सकें । जो कुछ समागम मिला है आखिर वह नियम से बिछुड़ेगा, इसमें संदेह की रंच गुंजायस नहीं है । चिरकाल तक रहने वाला कोई भी समागम नहीं है । तब पहिले से ही यह निर्णय कर लें ना कि सर्व कुछ समागम नियम से हमसे अलग होंगे । इस निर्णय के होने पर जब बिलगाव होगा तब इसे क्लेश नहीं हो सकता । क्योंकि उसके यह भान है कि इस बात को तो हम पहिले से ही जानते थे । अचानक कोई बात गुजरे, उसकी चोट लगती है और उस चोट के बारे में पहिले से ही भान हो जाय कि अमुक विपदा आयेगी तो उसमें इतना साहस बनता है कि वह उसे सुगमता से सहन करता है ।
सत्य के पालन में जैन शासन की सार्थकता ― तो अपना मुख्य लक्ष्य यह होना चाहिए कि जो हमने जैन शासन पाया है, जो अत्यंत दुर्लभ चीज है, उस शासन से हम अधिकाधिक लाभ उठायें । वह लाभ है सत्य के पालन में । सत्य बोलें, शुद्ध आचरण करें, सत्य की प्रतीति बनायें और ध्रुव सत्य है आत्मा का सहज स्वरूप, उस रूप अपने आपका अनुभवन करते रहें । जो अन्य कुशास्त्र रचे गए हैं वे विषय कषाय के अभिलाषी पुरुषों ने रचे हैं । उन शास्त्रों से हम अपना कुछ निर्णय न बनायें किंतु अपने पद का निर्णय बनायें ।