वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 548
From जैनकोष
सर्वलोकप्रिये तथ्ये प्रसन्ने ललिताक्षरे ।वाक्ये सत्यपि किं ब्रूते निकृष्ट: परुषं वच: ॥548॥
प्रिय और हितकारी वाणी बोलने की शिक्षा ― यद्यपि लोक में ऐसे वचन बहुत से हैं जो सर्वलोक को प्रिय हों, तथ्यभूत हों, प्रसन्न करने वाले हों, जो ललित, सुंदर अक्षरों से भरपूर हों ऐसे वचनों के होते हुए भी नीच पुरुष कठोर वचन बोलते हैं तो किसलिए बोलते हैं यह ज्ञात नहीं हो सका । एक आश्चर्य की धुन में आचार्यदेव यह शिक्षा दे रहे हैं कि जब वचन लोकप्रिय सत्य अपने और पर की प्रसन्नता करने वाले हैं, ललित अक्षरों से भरपूर हैं ऐसे वचनों के होते हुए भी लोग कठोर और मिथ्या भाषण करते हैं । इससे उनकी कुछ सिद्धि नहीं है । इस प्रकरण में इस बात पर जोर देते हैं कि वाणी वह बोलो जो दूसरों को प्रिय हो, दूसरों का अपमान जरा भी जाहिर हो ऐसी बात न बोलना चाहिए । जगत में सभी जीव प्रभु की तरह स्वरूप वाले हैं । कोई भी जीव निम्न नहीं है । उपाधि के भेद से यह मायारूप विज्ञाता होता है पर यह विज्ञाता किस जीव के स्वरूप में नहीं पड़ी हुई है ॽ अविनश्वर भाव के आधार पर जीवों में भेद चलता है, यह ज्ञान की बात नहीं है । इसका ज्ञाता द्रष्टा रहे, जो कुछ भी भेद हैं उनके जानकार रहें, किंतु मूल में सब जीवों का स्वरूप समान निरखो । इस स्वरूप की दृष्टि होने पर किसी का अपमान करने लायक कषाय हो ही न सकेगी ।
आत्मध्यानकारी वचनों में सर्वसुंदरता ― जब वह पुरुष ललित वाणी से वचनालाप करेगा तो ऐसे वचन बोलने वाले को यह अवसर है कि वह आत्मा का ध्यान करे और आत्मा की धुन बनाये । संसार में एक आत्मस्मरण ही शरण है । लोग कहते हैं कि प्रभु की हम पर बड़ी कृपा है, उसका अर्थ है कि हम पर प्रभुस्मरण की कृपा है । प्रभु तो अनंत आनंदमय हैं, उनके स्वरूप का स्मरण करके हम स्वयं अपने पुण्य आशय के कारण दु:ख रहित हो जाते हैं । तो लोग इसमें प्रभु की महिमा समझते हैं कि हम पर प्रभु की बड़ी कृपा है । और, ऐसा कहने में उससे भी बड़ी महिमा प्रकट होती है कि प्रभु की भी बड़ी कृपा है । जिस प्रभु के स्मरण में इतनी बड़ी कृपा है कि हम स्वर्ग और अपवर्ग के सुख प्राप्त कर सकते हैं । तो समझिये वह प्रभु कितना पवित्र और आदर्शरूप होगा ॽ कृपा की बात किस प्रभु में राग की बात लगाते हैं । दया राग बिना नहीं होती किंतु वह दया के मार्ग से चलकर दया से भी ऊँचे उठ गए हैं । ऐसे शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपमात्र है । प्रभु के स्मरण में इतना विशेष माहात्म्य है कि प्रभु का स्मरण करके जीव स्वयं ही अपने आप दु:ख से मुक्त हो जाता है । ऐसी जिसकी आत्मदृष्टि है और प्रभुस्वरूप की दृष्टि है वह पुरुष कैसा वचनव्यवहार करता है उस वचन की शिक्षा यहाँ दी गई है कि हित मित प्रिय वचन बोलकर ही जीव आत्मध्यान का पात्र बन सकता है, अहित वचन वाला नहीं बन सकता है ।