वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 563
From जैनकोष
न हि स्वप्नेऽपि संसर्गमसत्यमलिनै: सह।किश्चित्करोति पुण्यात्मा दुरितोल्मुकशंकया ॥563॥
सत्संगति हितकारी ― जो सज्जन पुरुष हैं वे असत्य पुरुषों की संगति कभी नहीं करते, क्योंकि जो असत्य से मलिन पुरुष हैं उनके साथ संगति करने से असत्य की कालिमा ही लग सकती है, इस भय से सज्जन पुरुष स्वप्न में भी असत्यवादी पुरुषों की संगति पसंद नहीं करते हैं । देखिये सत्य के मायने हित भी है । सत्य क्या है जो मेरे लिए हितरूप हो ।ज्ञानानंदस्वरूप की दृष्टि में हित ― मेरे लिए हितरूप क्या है ॽ कुछ तो जीवन में भी देख लिया होगा, स्त्री, पुत्र, वैभव इत्यादि के प्रसंग, लौकिक इज्जत, लोगों को खुश करना यह सब क्या हितरूप रहता है, इसमें क्या निराकुलता मिल सकेगी ॽ ये सब मायारूप हैं, असार हैं, एक अपने आपके ज्ञानस्वरूप की दृष्टि होना, सबसे निर्मल हूँ मैं, केवल ज्ञानानंद हूँ मैं, इस प्रकार का निर्णय रखना, सबके विकल्प छोड़ना ऐसा परम विश्राम कोई अपने मन को दे तो वहाँ सत्य नजर आयेगा । वह सत्य क्या ॽ जो प्रभु के प्रकट हुआ है वही सत्य है ।
दु:ख के कारण अहंकार और ममकार ― जीव को दु:ख देने वाले दो परिणाम हैं ― अहंकार और ममकार । अहंकार के मायने हैं कि जो मैं नहीं हूँ उसे मानना कि मैं हूँ, ममकार का अर्थ है ― जो मेरा नहीं है उसे मानना कि मेरा है, यह ममकार है । अहंकार में कर्तृत्वबुद्धि बसी है, मैं सुखी करता हूँ, दु:खी करता हूँ, यह बात अहंकार में पड़ी हुई है । अहंकार से राग और द्वेष बढ़ता है । आप सोच लीजिए ― जरा-जरा सी बात में जो क्रोध आने लगता है, घमंड आने लगता है वह अहंकार का ही तो काम है । इस लोक में घमंड के लायक कौन सी बात पायी है ॽ यदि ज्ञान मिला है तो केवलज्ञान के सामने यह ज्ञान क्या चीज है, यदि धन मिला है तो चक्रवर्ती के जैसे वैभव के सामने यह धन किस प्रमाण का है ॽ कौन सी बात ऐसी मिली है जो अभिमान के लायक हो ॽ सब विनश्वर समागम हैं । ये समागम गौरव के लिए नहीं हैं । ये तो आत्मा को पतन में ले जाने वाली चीजें हैं, जहाँ यह मैं ज्ञानसमुद्र अपने आपमें मग्न न हो सकूँ और नाना तरंगों से विकल रहा करूँ तो वह तो बरबादी की निशानी है । समागम वह श्रेष्ठ है जो एक दूसरे को धर्म में लगाये । घर गृहस्थी वही उत्तम है जहाँ सभी व्यक्ति एक दूसरे को धर्म में लगायें ।
आत्मा के अहितकारक विषय और कषाय ― जो पापों में लगायें वे बंधु नहीं हैं वे तो शत्रु हैं, पाप हैं ये विषयकषाय । प्रभु के सामने हम यही तो कहा करते हैं कि हे प्रभो ! आत्मा के अहित विषय और कषाय हैं, इनमें हमारी परिणति न जाय । यही तो हम माँगते हैं, तो केवल कहने –कहने से ही तत्त्व न निकलेगा । हम विषय कषायों की परिणति को कम करें तब हमारी सिद्धि है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना से प्रभु बने । तो प्रभुदर्शन से हमें वह बात सीखनी है कि जो प्रभु ने किया वही मैं कर सकता हूँ । यह बात संभव है सम्यग्ज्ञान से । सम्यग्ज्ञान के लिए अधिक से अधिक यत्न करिये ।
स्वाध्याय से निराकुलता ― अब सोचिये ― लोग सोचा करते हैं कि हम अधिक पढ़ें लिखे नहीं हैं ग्रंथों का स्वाध्याय क्या करें ॽ तो जो भी पढ़ें लिखे आज हैं और ग्रंथों के पाठी हैं वे कहीं जन्म से तो सीखे हुए नहीं हैं । किसी काम को कठिन मानकर उससे यदि दूर रहे तो वह काम कभी सरल नहीं बन सकता । कठिन है फिर भी उसमें प्रवृत्ति करें, अपने आप सीखें, दूसरों को सिखायें तो कुछ समय बाद वह चीज सरल बन सकती है । जिसके ज्ञान होगा वह अपने आपमें संतुष्ट हो सकता है, उसका समय निराकुलता में बीत सकता है । जिसमें ज्ञान नहीं है वह खाली बैठा हुआ क्या करेगा ॽ विकल्प मचायेगा, उसका जीवन आनंद में कट नहीं सकता । ज्ञान से बढ़कर और कुछ वैभव है ही नहीं । तो उस ज्ञान का हम यत्न किस तरह से करें ।
स्वाध्याय और सत्संगति से विषय कषायों में अनासक्ति ― उसका उपाय एक तो स्वाध्याय है । दूसरे अपने ही गाँव में नगर में और कोई भी कुछ अधिक पढ़ें लिखे हों उनको मानकर कोई किताब कुछ न कुछ रोज पढ़ें, ये हैं ज्ञानार्जन के उपाय । कोई करे तो पा सकता है, न करे, यों ही मजाक में टाल दे तो वह ज्ञान नहीं पा सकता । तीसरा काम यह है कि वर्ष में कम से कम एक माह अपना घर छोड़कर किसी ऐसे सत्संग में रहे जहाँ ज्ञान की बात मिलती हो । उससे कितना लाभ है ॽ मोह में कुछ फर्क आ जाता है, ज्ञान में कुछ उज्ज्वलता आ जाती है, बुद्धि में भी बल बढ़ जाता है, बाद में फिर घर में आकर भी ऐसा प्रकाश पाता है कि वह किन्हीं विषय कषायों में आसक्त नहीं हो सकता है तो ये दो विशाल उपाय हैं जिनको करना हमारा काम है । हम यदि ज्ञानदृष्टि बना सके, अपने आपको ज्ञानरूप मान सके तो हम कर्मों को काट सकते हैं, जिन कर्मों की प्रेरणा में हम नाना दुर्गतियों में जन्म लिया करते हैं । कर्मध्वंस करने के लिए ही तो प्रभु पूजा करते हैं ।ज्ञानाराधना से कर्मों का मोचन ― स्वाध्याय, ध्यान आदि करना, पर्व मनाना, इन सबका प्रयोजन है हम अपने भव-भव के बाँधे हुए दु:सह कर्मों को काट दें, तो दु:सह कर्म कटते हैं एक ज्ञान की आराधना से । अपने आपमें बहुत-बहुत बार जरा ऐसी भावना तो कीजिए कि मैं देह से भी न्यारा केवल ज्ञानमात्र हूँ, ऐसी दृष्टि भी बनायें । मैं शरीर से भी न्यारा केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, मुझमें केवल ज्ञानप्रकाश है । ज्ञानज्योति के सिवाय अन्य कुछ मुझमें नहीं है । न मुझमें रूप है, न रस है, न गंध है, न स्पर्श है । मैं तो केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, ऐसी प्रतीति रखे तो इस प्रतीति में वह अद्भुत आनंद जगता है जिस आनंद से ये कर्मसंकट सब दूर हो जाते हैं । यही