वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 568
From जैनकोष
चंचन्मस्तकमौलिरत्नविकटज्योतिश्छटाѕम्बरै ।र्देवा: पल्लवयंति यच्चरणयो: पीठे लुठंतोऽप्यमी ॥
कुर्वंति ग्रहलोकपालखचरा यत्प्रातिहार्यं नृणां ।शाम्यंति ज्वलनादयश्च नियतं तत्सत्यवाच: फलम् ॥568॥
सत्यवादियों का प्रताप ― सत्य महाव्रत के प्रकरण में यह आखिरी छंद है । देखिये जो सत्यवादी आदमी हैं उनकी बड़े-बड़े देव भी पूजा करते हैं । जैसे यहाँ शास्त्रसभा होती है स्वर्गों में भी देव हैं, उनके भी धर्म की चाह है, वहाँ भी शास्त्र प्रवचन चलते हैं, धर्मचर्चा चलती है । कोई-कोई चर्चा यों चल जाती है कि मनुष्यलोक में सत्य में आज कौन प्रसिद्ध है, ब्रह्मचर्य में कौन प्रसिद्ध है, अहिंसाव्रत में कौन प्रसिद्ध है ॽ लोग बताते हैं । तो किसी देव के मन में परीक्षा करने की आ जाती है और किसी ढंग से वे परीक्षा करते हैं । जब परीक्षा में उतर जाता है तो वह देव उस मनुष्य के चरण कमल को पूजता है, अपने देदीप्यमान रत्नजड़ित मुकुटों के ज्योति से उस मनुष्य के चरणकमल की शोभा बढ़ाते हैं । जो सत्य बोलता है उसके इतना पुण्य का उदय होता है कि उसके प्रताप से अग्नि जल वगैरह के उपद्रव भी शांत हो जाते हैं । जैसे सीता की अग्नि परीक्षा में अग्नि जलमय हो गयी । हुआ क्या, सो वह भी एक पुण्य का ही प्रताप था । जाते हुए दो देवों ने विक्रिया की जिससे अग्नि जलमय हो गयी । अग्नि से सीता नास न हो सकी । यह था शुद्ध आचरण से रहने का प्रताप । जल के बड़े प्रवाह चल रहे हैं उन नदियों में भी पुण्यवान पुरुष धसे तो भी वह पानी कम हो गया, और यों ही पार हो जाते हैं । तो यह सब सत्य की महिमा है । जिन मनुष्यों की सेवा बड़े-बड़े प्रसिद्ध देव आदिक भी करते हैं ।
सत्यवचनों के प्रसाद से सर्वसिद्धि ― ऐसे महान पुरुष तीर्थंकर चक्रवर्ती आदिक होते हैं । ये बहुत बड़े वैभववान जो जन्म से ही हो जाते हैं वे उनकी कमायी हुई चीजें हैं क्या ॽ पूर्वजन्म में अपना आशय निर्मल रखा, धर्मपालन किया, सत्यव्यवहार किया उसका यह प्रताप है कि वे चक्रवर्ती हैं, तीर्थंकर हैं, मंडलेश्वर राजा है, लोगों के द्वारा अभिनंदनीय पुरुष हैं । तो इतना उत्कृष्ट वैभव उन्हें जो मिल गया है यह सब पूर्वकृत्य पुण्यकर्म का प्रसाद है । अग्नि में प्रवेश करे फिर भी देव सहायता करें, जल में गिर जाय तो वहाँ भी देव सहायता करें । यह सब सत्य वचनों का प्रसाद है । जो सत्य वचन बोलता है, वह आत्मा के ध्यान का पात्र है, आत्मा का ध्यान करने के लिए ध्यान के तीन अंग बताये हैं ― सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । उसमें सम्यक्चारित्र के प्रकरण में अहिंसा महाव्रत का वर्णन कर दिया गया था । यह सत्यमहाव्रत का वर्णन किया है । सत्यवादी ही आत्मा के ध्यान के पात्र होते हैं ।
॥ज्ञानार्णव प्रवचन सप्तम भाग समाप्त॥