वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 567
From जैनकोष
परोपरोधादतिनिंदितं वचो ब्रुवन्नरो गच्छति नारकीं पुरीं ।अनिंद्यवृत्तोऽपि गुणी नरेश्वरो वसुर्यथागादिति लोकविश्रुति: ॥567॥
असत्य के आदर से नरकप्राप्ति ― दूसरे मनुष्यों की प्रार्थना से अन्य पुरुष अन्य के लिए जो अति निंद्यनीय असत्य वचन कहते हैं वे नरकगति को जाते हैं । स्वयं भी असत्य न बोले और दूसरा कोई बुलवाना चाहे तो दूसरे के अनुरोध पर भी असत्य न बोले । जिसके विषय में यह निर्णय हो कि यह बड़ा सत्य पुरुष है तो उस पुरुष के निकट लोग कैसा विश्राम से और उसका कैसा आदर करते हुए बैठते हैं । उसके प्रति लोगों की कितनी अच्छी श्रद्धा होती है, और जो असत्य बोले चाहे दूसरों के छिपाव से भी बोले तो भी वह दुर्गति को जाता है । राजा वसु का बहुत ऊँचा आचरण था, गुणवान था, सत्यवादी था, परंतु अपने सहपाठी पर्वत के लिए उसने झूठी गवाही दी । जो पर्वत कहता है सो ठीक है । विवाद यह था पर्वत और नारद में कि नारद कहता था कि अजै: अस्तव्तं मायने पुराने धान से यज्ञ करना चाहिए और पर्वत कहता था कि अजै: अस्तव्यं मायने बकरे से यज्ञ करना चाहिए । सो वसु ने कह दिया कि जो पर्वत कहता है सो ठीक है । इतना कहने मात्र से वह वसु नरक में गया । पुराणों में यह बड़ी प्रसिद्ध बात है । तो दूसरों के लिए जो झूठ बोलता है वह भी नरक में जाता है ।
असत्य का कारण कषाय ― झूठ बोलने में बात तो थोड़ी सी लगती है पर झूठ तब बोला जाता है जब हृदय में विषमतायें बहुत होती हैं, पाप के आशय होते हैं, लोभकषाय होती है, लोक में अपना मान करने की चाह होती है । तो जब कषाय बढ़ी हुई होती है तब झूठ बोला जाता है । झूठ बोलने से पाप होता है, उसमें इस पर दृष्टि डालें कि कितनी कषाय की जाती है तब झूठ बोला जाता है । किसी आदमी को दुनिया में अपना नाम यश कमाने की इच्छा न हो, किसी आदमी को किसी भी परपदार्थ का लोभ न जगता हो तो वह असत्य क्यों बोलेगा ॽ असत्य बोला जाता है दो बातों से । लोभ से और मान से । खूब सोच लो झूठ बोलने के मूल में दो ही कारण मिलेंगे या तो लोभ कषाय प्रबल है तो झूठ बोला जाता है, झूठ बोलने से इतना वैभव मिलेगा, यह आजीविका मिलेगी, इतना धन मिलेगा या लोभ कषाय जगी हो या अपना यश रखना चाहता हो तो उसके लिए उपाय करे, और उसमें जो करना पड़े सो करने को तैयार रहेंगे ।
ज्ञानी पुरुष के लोभ और मान का अभाव ― सो ज्ञानी पुरुष को न तो नाम यश रखने का मन में है, न किसी प्रकार के लोभ की बात मन में है । ज्ञानी जन जानता है कि किन में अपना नाम चाहना, ये सब खुद विनाशीक हैं, इनमें नाम चाहने से लाभ क्या ॽ ज्ञानी जीव को न तो अपने नाम की चाह है और न किसी प्रकार का उसके लोभ है । लोभ किसका करना ? जो उदय में है उसके अनुसार मिलता है । कैसी ही स्थिति में कोई हो, सब उदयाधीन बातें हैं । अनेक चारित्र ऐसे पुराणों में मिलेंगे जो राजपाट छोड़कर चले गये, दूसरी जगह उन्हें फिर राजपाट मिल गया । पुराणों की बात जाने दो, यहीं की बात देखो-जब भारत पाक का बटवारा हुआ उस समय अनेक लोग पाकिस्तान से यों ही जान बचाकर चले आये, संग में कुछ भी न लाये थे, पर न जाने कहाँ से क्या विधि बनी कि वे आज लखपति हैं । चीज क्या हुई ॽ उनका भाग्य था वैसी विधियाँ मिल गयीं । यहाँ भी समृद्धि चाहिए तो एक पुण्य कार्य करें, पवित्र कार्य करें । होता तो वही है जैसा उदय है । तो उदय अच्छा बनें उस ही पुरुषार्थ से तो काम निकलेगा । आये तो आये, जाये तो जाये, जो स्थिति बनेगी उसमें गुजारा कर लेंगे, पर धर्म को न छोड़ेंगे ।
पवित्र आशयवान के सत्यवादिता ― इतनी दृढ़ प्रतिज्ञा हो कि जो हमारा कार्य है उसे न छोड़ेंगे । कभी-कभी ऐसा होता है कि पूजा में मन नहीं लगता तब भी श्रद्धा के कारण जबरदस्ती पूजा करते हैं । चूँकि श्रद्धा है ना इस कारण जबरदस्ती पूजा में मन लगा रहे हैं । रही भगवान की बात, मंदिर की बात, मंदिर में प्रतिमा विराजमान है, उनकी पूजा हो तो, न हो तो, उससे प्रभु का कुछ नहीं बिगड़ता । कोई यह सोचता हो कि आज पूजन नहीं हुआ तो भगवान बिना पूजा के रह गए, यह बात गलत है, सोचना यह चाहिए कि हम बिना पूजा के रह गए । वह तो दर्शनीय है । स्वरूप निरखिये, अपने में उतारिये इसके लिए है । पूजा करना तो अपना कर्तव्य है । जो पूजा करता है उसकी श्रद्धा है तभी तो पूजा करता है । श्रद्धा से धर्म, ज्ञान से धर्म, चारित्र से धर्म है । तो जिसका आशय पवित्र है उसकी प्रत्येक क्रिया सत्य है और जिसका आशय अपवित्र हो गया उसके वचन असत्य ही निकलेंगे और असत्य भाषण का फल है दुर्गति प्राप्त होना ।