वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 584
From जैनकोष
सरित्पूरगिरिग्रामवनवेश्मजलादिषु।
स्थापितं पतितं नष्टं परस्वं त्यज सर्वथा।।
परपरिहार में कल्याण साधना- हे आत्मन् ! यदि अपना कल्याण चाहते हो, आत्मप्रसन्नता चाहते हों तो सर्वत्र रखे हुए, गिरे हुए, नष्ट हुए, भूले हुए धन को मन, वचन, काय से ग्रहण करना छोड़ दो। नदी, नगर, पर्वत, गाँव, वन, घर, जल, किसी भी जगह कोई परधन पड़ा हो, उसे ग्रहण करने की मन में आशा न रखो। देखो- जब कभी सद्गृहस्थ अपने ही वैभव से प्रयोजन रखता है और संतुष्ट होता है, किसी भी मनुष्य के, किसी भी पर के धन को ग्रहण करने की, छुड़ाने की, लूटने की, कमाने की या अन्याय करके ग्रहण करने की वांछा नहीं रखता तो वह कितना संतोष से घर में निवास करता है। जिनके तृष्णा लगी है उनका यही तो भाव है कि जिस किसी भी प्रकार हो, दूसरे का धन हमारे कब्जे में हो जाय। तृष्णा का और अर्थ क्या है? मैं बहुत बड़ा वैभवशाली बन जाऊँ, ऐसी मन में रटन लगाने वाले का और भाव क्या है, किसी भी प्रकार से धन का संचय हो जाय। और सद्गृहस्थ वह है, पुण्यात्मा वह है जो केवल अपने जीवन में एक धर्म धारण करने का ही मुख्य कार्य समझता है। ऐसे पुरुष के अनायास ही सरल उपायों से वैभव संचित हो जाता है और उस संचित वैभव का अधिकांश भाग पाठशालावों के चलाने में, अन्य-अन्य प्रकार से धर्म का प्रचार करने में व्यय होता है। धन वैभव की तृष्णा करना एक सद्गृहस्थ का मुख्य कार्य नहीं है, उसका मुख्य कार्य तो एक धर्म की उपासना करना है।