वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 585
From जैनकोष
चिदचिद्रूपतापन्नं यत्परस्वमनेकधा।
तत्त्याज्यं संयमोद्दामसीमासंरक्षणोद्यमै:।।
परधनपरिहार से संयमरक्षा- संयम प्रतिज्ञा की जिन्हें रक्षा करना हो उनका कर्तव्य है कि चेतन अथवा अचेतन समस्त परधन का परिहार करें। देखिये संयम त्याग का और भाव है क्या? उसका मुख्य भाव तो यह है कि अपने आत्मा के गुणों के अतिरिक्त अन्य समस्त परभावों को पर जानकर उनमें अपना उपयोग न फँसाऊ। केवल मैं अपने आत्मा का ही ध्यान करके उसे ही दृष्टि में लेकर उसके शुद्ध प्रकाश में जो विशुद्ध आनंद प्रकट होता है उससे ही तृप्त रहूँ, संयम और त्याग ग्रहण करने का भाव यही हुआ करता है, फिर इसके विरुद्ध परवस्तुवों का अपनाना भी चल रहा हो और परधन को ग्रहण करने का मन में भाव भी चल रहा हो, तृष्णा भी बहुत-बहुत बढ़ रही हो तो वहाँ संयम और मर्यादा की रक्षा नहीं हो सकती। और साथ ही आसक्ति के कारण एक बहुत बड़ी बेचैनी बनी रहती है वहाँ आत्मा की सुध नहीं ले सकते।
आत्मपदार्थ की मंगलरूपता- देखिये जगत में जितने भी मंगल पदार्थ हैं उन सबमें उत्कृष्ट मंगल पदार्थ है निज सहज ज्ञानानंदस्वरूप में देखा हुआ अपने आपका आत्मपदार्थ। इससे बढ़कर मंगल की दुनिया में और कोई वस्तु नहीं है। खुद यदि प्रसन्न हों तो प्रसन्नता उसका नाम है। खुद के ज्ञान और साधना के कारण खुद में लगाव होने से जो एक उत्कृष्ट संतोष प्रकट होता है उसमें जो आनंद जगता है वह तो एक खास वैभव है, वही मंगल है। मंगल उसे कहते हैं जो पापों को तो गला दे और सुख को उत्पन्न करे। भला आप बतलावो किसी भी परपदार्थ में ऐसी खूबी किसमें मिलेगी जो पापों को तो गला दे और सुख को उत्पन्न कर दे? बाह्यपरिग्रहों में तो यह बात नहीं है। हमारा पाप हमारे ही शुद्ध भावों से गल सकता है, किसी परपदार्थ के समागम से नहीं गल सकता है। जब हमारा उपयोग देवपूजा, गुरुसत्संग आदिक प्रसंगों में रहता है उस समय भी यह समझिये कि मेरे पाप को गलाने वाले ये मंदिर मूर्ति अथवा गुरु नहीं हैं, ये कारण हैं, निमित्त हैं, हम अपना ही परिणाम शुद्ध बना सकें तो पाप गलते हैं और हमें आत्मीय सुख प्राप्त होते हैं। प्रभु निष्पाप हैं, उनके कैवल्यस्वरूप को निरख करके हम अपने आपके स्वरूप का पता पाते हैं और विकारों से हटते हैं तब हमें सुख उत्पन्न होता है और हमारे पाप दूर होते हैं। तो मंगल लोक में मैं ही हूँ।
आत्मपदार्थ की लोकोत्तमता व शरणभूतता- इस लोक में उत्तम भी यह आत्मतत्त्व ही है। चाहे आत्मा कहो, आत्मतत्त्व कहो, आत्मधर्म कहो, या केवली के द्वारा कहा हुआ धर्म कहो, सबका मंतव्य एक है। लोक में उत्तम केवली प्रभु के द्वारा कहा गया धर्म है। उन्होंने क्या बताया कि प्रत्येक पुरुष को अपने आपका स्वभाव और उसका आलंबन ही शरण है। तो निज स्वभाव का आलंबन करना यह केवली भगवान ने धर्म बताया है। निज आत्मभगवान ही मंगल है, लोकोत्तम है और शरणभूत है। उस आत्मतत्त्व की हमारी निरख बहुत-बहुत काल बनी रहे, ऐसा उद्यम, ऐसा सत्संग बने तो इससे बढ़कर और कुछ वैभव की बात न होगी। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ परद्रव्यों की चाह करना यह हमें हमारे मार्ग से पतित कराने वाली बात है। अतएव जो मुक्ति के अभिलाषी हैं, आत्मकल्याण चाहते हैं, अपने संयम मर्यादा की रक्षा करना चाहते हैं तो वे चेतन अचेतन समस्त पर के आलंबन को छोड़ दें, उनकी आशा न रखें, अस्तेयव्रत का पालन करें तो उनमें वह पात्रता बनेगी कि वे अपने आपका ध्यान बना सकेंगे और आत्मा भगवान की उपासना में अधिकाधिक रह सकेंगे।