वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 587
From जैनकोष
अतुलसुखसिद्धिहेतो-धर्मयशश्चरणरक्षणार्थं च।
इह परलोकहितार्थं कलयत चित्तेऽपि मा चौर्यम्।।
अस्तेय के सर्वथा परिहारी का निकटभविष्य में कल्याण- अचौर्यमहाव्रत के प्रकरण में आचार्य महाराज उपदेश करते है कि यदि अनुपम सुख चाहते हो, धर्म, यश और चारित्र की रक्षा करना हो, इहलोक और परलोक में कल्याण की प्राप्ति करना हो तो चौर्यपाप में रंचमात्र भी चित्त को मत लगावो। यह मनुष्य केवल परधन की चोरी से दूर रहकर समझें कि हम पापों से अत्यंत दूर हो गए, सो लोकव्यवहार में तो दूर हो गए, लेकिन किसी भी प्रवृत्ति को अपने अंदर छुपाये रहना और बाहर में अपने को निरपराध, बुद्धिमान, धर्मात्मा साबित करना यह भी तो चोरी है और वह अपनी अध्यात्म की चोरी है, ज्ञान विवेक करके सर्व प्रकार की सूक्ष्म स्थूल चोरियों से दूर रहकर जो आत्मरस का पान करता है वह पुरुष मोक्षमार्गी है और अति निकट में निर्वाण को प्राप्त होगा।