वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 586
From जैनकोष
आस्तां परधनादित्सां कर्त्तुं स्वप्नेऽपि धीमताम्।
तृणमात्रमपि ग्राह्यं नादत्तं दंतशुद्धये।।
विवेकियों की पर से परम उपेक्षा- बुद्धिमान आदमियों को पराये धन को ग्रहण करने की इच्छा करने की बात तो दूर रही किंतु अपने दाँत धोने के लिए बिना दिये दातून तक भी पर को ग्रहण करना योग्य नहीं समझते हैं। किसी की बिल्कुल मामूली कीमत की चीज भी बिना दिये वे ग्रहण नहीं करना चाहते हैं। एक व्रत निर्वाह की मर्यादा होती है। जब कभी कोई आदमी किसी मर्यादा से पतित होता है या अन्याय में लगता है तो किसी बड़े अन्याय से या बड़े पाप से शुरू नहीं करता। छोटी-छोटी बातों से सीखता है और कभी बड़े पापों को करने लगता है। अस्तेय महाव्रत के प्रकरण में यह बात बताई जा रही है कि अन्य किसी बड़े वैभव को चुराना या उसकी इच्छा करना तो दूर रहो, तृण जैसी चीज को भी बिना दिये हुए ग्रहण नहीं किया करते हैं। पाप से बचकर रहने में आत्मा में एक संतोष और अनुपमबल प्रकट होता है। और, आत्मबल ही किसका नाम है? जितने अन्याय के कार्य हैं, पाप के कार्य हैं उनसे दूर बने रहना और न्यायपूर्वक अपने आपका जीवन बने इसमें ही आत्मबल बढ़ता है।
ज्ञानी का दृढ़ निर्णय- ज्ञानी गृहस्थ पुरुष सदैव इस बात में सावधान रहता है और अपना यह दृढ़ निर्णय बनाये रहता है कि मेरा इस जगत में मेरे आत्मा को छोड़कर अन्य कुछ शरण नहीं है। देखिये जितना अपने स्वरूप के एकत्व की ओर आयें उतना तो आत्महित है और जितना परवस्तुवों में दृष्टि उपयोग गड़ायें रहें, उन्हीं-उन्हीं की चिंता में रहें, उनका ही मन में भाव रहे तो सोचिये तो सही कि अपना यह उपयोग अपनी जगह से हट गया या नहीं? अरे पर जगह लगा है तो यह अज्ञानवृत्ति कहलाती है। जो ज्ञान अपने ज्ञानस्वरूप की भावना से हटकर अन्य-अन्य पदार्थों में जुटा रहे उसका ही नाम अज्ञान है। अब अपनी जीवन चर्चा में सोचे कि हम अज्ञान का आदर करने में कितना समय लगाते हैं और निज ज्ञानस्वरूप भगवान का आदर करने में कितना समय लगाते हैं।
निर्लेपता से आत्मपवित्रता- मोहममता ही इस जगत के जीवों को बरबाद करने वाली वृत्ति है, उससे हटने की भावना और कोशिश अवश्य रहना चाहिए। यह तो एक गुप्त रहकर अपने आपमें की जाने वाली बात है। यह सब अपने अधीन बात है। सब कुछ बाहरी कार्य करते हुए भी हम अपने आपमें अलिप्त रह सकें, यह है अस्तेय व्रत का परमार्थ आदर। ऐसा क्या हो नहीं सकता? किसी सेठ की दुकान पर मुनीम कार्य करता है। उतनी चाहे सेठ में भी अक्ल न हो जितनी मुनीम के हो, दुकान की सारी व्यवस्था, हजारों लाखों का बैंक का हिसाब सब मुनीम ही रखता है, सेठ की सारी संपत्ति की रक्षा करता है लेकिन मुनीम के चित्त में यह बात बैठी है कि इसमें मेरा कुछ नहीं है, मैं तो एक ड्यूटी बजा रहा हूँ। वह मुनीम उस सारी संपत्ति से बिल्कुल निर्लेप रहता है। ऐसे ही ज्ञानी गृहस्थ बड़े-बड़े वैभवों के प्रसंग में रहकर यह जानता रहता है कि मेरा मेरे से बाहर कुछ भी नहीं है। केवल एक लोकव्यवस्था के नाते चूँकि हम गृहस्थ हैं, अपना कर्तव्य निभाने के नाते इन सबकी रक्षा कर रहा हूँ, मैं परिवार के पोषण का कारण बन रहा हूँ, वस्तुत: मेरे कहीं कुछ नहीं है, ऐसी निर्लेपता ज्ञानीसंत गृहस्थ में भी हुआ करती है। और, इस भावना में ही उसने वास्तविक अस्तेय व्रत का पालन किया है अर्थात् चोरी से वह वास्तविक मायने में दूर रहा।
धर्मपालन की मुख्यता- जो समस्त परवस्तुवों को अपने से भिन्न निहारता है और अपने आपके ही ज्ञानानंद स्वरूप में ग्रहण करने का यत्न रखता है ऐसा पुरुष ही मोक्षमार्गी है और वह अपना जन्म सफल करता है। सच्चा पुरुषार्थ इतना ही है। हम सबका कर्तव्य है कि हम अपनी जिंदगी का मोड़ बदले और इतना तो निर्णय रख लें कि मनुष्यजन्म में हम आये हैं तो यहाँ मुख्य कार्य हमारा धर्मपालन है, और, वह धर्मपालन भी यही है कि अपने सत्यस्वभाव की ओर झुके रहें, पर की चिंता विकल्प को दूर कर सकें। ऐसी आंतरिक वृत्ति का यत्न करना ही वास्तविक धर्मपालन है। हम यह निर्णय बनायें कि पहला काम तो हमारा धर्म है, इसके पश्चात् आजीविका का काम है, परिवार की रक्षा का काम है, सारी व्यवस्थाएँ करने का काम है। ऐसा करने से न व्यवस्था में अंतर आता है और न धर्मपालन में अंतर आता है।