वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 592
From जैनकोष
एकमेव व्रतं श्लाघ्यं ब्रह्मचर्यं जगत्त्रये।
यद्विशुद्धिं समापन्ना: पूज्यंते पूजितैरपि।।
ब्रह्मचर्यव्रत का जयवाद- ब्रह्मचर्य नाम का महान व्रत जयवंत प्रवर्तो। यह ब्रह्मचर्य महाव्रत चारित्र का एक मात्र जीवन है। इस ब्रह्मचर्य व्रत के बिना अन्य जितने भी गुण हैं, अन्य जितने भी धार्मिक आचरण हैं वे सब क्लेश के ही कारण होते हैं। जीव को अपने आपमें संतोष मिले ऐसी प्रवृत्ति करने में ही जीव का हित है, बाह्यपदार्थों की दृष्टि से संतोष संभव नहीं है, क्योंकि बाह्यपदार्थ बाह्य हैं, उनका परिणमन उनके साथ है, उनका सदैव संग नहीं रहता है और यह उपयोग अपने आपमें केवल कल्पनाएँ बनाया करता है तो बाह्य पदार्थों में इसे संतोष नहीं उत्पन्न हो सकता। संतोष मिलेगा, आनंद मिलेगा तो जीव को अपने आपमें ही मिलेगा। उस आनंद की प्राप्ति का उपाय है अपने ब्रह्मस्वरूप का सत्य ज्ञान करना, श्रद्धान करना और उसमें ही रम जाना, एतदर्थ यह आवश्यक है कि व्यवहारब्रह्मचर्य की साधना की जाय। ब्रह्मचर्य का विघात एक मोह और मूढ़तावश ही किया जाता है। ब्रह्मचर्य न हो और उपवास तपश्चरण क्लेश बड़े बड़े काम भी किये जायें वे सब निष्फल हैं।