वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 593
From जैनकोष
ब्रह्मव्रतमिदं जीयाच्चरणस्यैव जीवितम्।
स्यु: संतोऽपि गुणा येन विना क्लेशाय देहिनाम्।।
दुर्धर व्रत ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य एक दुर्धर व्रत है, अपने आपको पवित्र बनाने वाला है, मोही मलिन प्राणियों से आशा न रखने की प्रेरणा देने वाला है। यह व्रत अल्प बल वाले पुरुषों से नहीं निभ सकता है, इसके लिए बहुत विवेक चाहिए, ज्ञानबल चाहिए। जिनकी प्रकृति तुच्छ है, जिनका स्वभाव निम्न है, ऐसे पुरुषों के द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत नहीं निभ सकता। जो पुरुष शील स्वभाव से रहित हैं, जिनके विचार उच्च नहीं हैं, तुच्छ जिनकी आकांक्षायें हैं ऐसे पुरुष इस ब्रह्मचर्य व्रत को नहीं निभा सकते। जिनका सत्संग अच्छा है, चाहे वह घर का ही सत्संग हो, वे पुरुष ब्रह्मचर्य व्रत की भावना बना पाते हैं। जैसा अनेक घरों में जैसा पुरुष वैसी ही स्त्री, दोनों ही ब्रह्मचर्य व्रत के रुचिया हो तो उनका भी सत्संग सत्संग कहलाता है। जो शील स्वभाव से रहित पुरुष हैं वे ब्रह्मचर्य को निभाने में असमर्थ हैं।
ब्रह्मचर्य व ब्रह्मचर्यघात के परिणाम- ब्रह्मचर्य से विवेक बढ़ता है, बुद्धि बढ़ती है, पुण्य बढ़ता है, संसार के अनेक वैभव सुखसाधना बढ़ते हैं। इस जगत से आँखें मींचकर अपने आपमें अपने प्रभु को निहारकर एक इस ब्रह्म की उपासना कीजिए और सही विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कीजिए। जो दीन पुरुष हैं, जो इंद्रिय के वश हैं उनके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं होता। दीन वे कहलाते हैं जो इंद्रिय के विषयों के अधीन हैं। जो दूसरों से आशा रखें वे ही बुद्धिहीन कहलाते हैं। जो कामवेदना के वश होकर अन्य पुरुष स्त्री से अपने सुख की अभिलाषा रखते हैं उनके आत्मा में दीनता का भाव आ ही जाता है। बड़ी शक्ति के धारक पुरुष ही ऐसे दुर्धर व्रत को धारण करने में समर्थ होते हैं।