वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 596
From जैनकोष
आद्यं शरीरसंस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम्।
तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्संसर्गस्तुर्यमिष्यते।।
योषिद्विषयसंकल्प: पंचमं परिकीर्त्तितम्।
तदंगवीक्षणं षष्ठं संस्कार: सप्तमं मतम्।।
पूर्वानुभोगसंभोगस्मरणं स्यात्तदष्टमम्।
नवमं भाविनी चिंता दशमं वस्तिमोक्षणम्।।
मैथुन का पांचवाँ प्रकार- पांचवें प्रकार का मैथुन है, स्त्री संबंधी किसी प्रकार का संकल्प या विचार करना या याद करना। इसको कहते हैं मनोज। काम का दूसरा नाम है मनोज। जो एक मन से खोटी वेदना उत्पन्न होती है वह कहलाता है मनोज। जैसे किसी मनुष्य को भूख लगी है तो कोई खासकर समझमें वाली वेदना है, ठीक है उसकी पूर्ति कर लें, खाकर भूख मिटा लें, वह वास्तव में वेदना है। शरीर में कोई रोग हो गया है, बुखार खाँसी वगैरह हो गयी है, हाँ वह वास्तव में एक वेदना है, उसका इलाज कर लें, फिर जैसे इस शरीर की वेदनाएँ हुआ करती हैं इस तरह की कोई दिखने में समझ में आने वाली कामवेदना है क्या? वह तो एक मन का संकल्प है। जिस क्षण किसी भी समय अचानक उदय खराब हो जब मन में कल्पना उठ बैठती है तो यह एक घृणित वेदना है, काल्पनिक वेदना है। इसके बिना शरीर का कुछ अटका नहीं है, शरीर के अंदर कोई वेदना हो तो उसे दूर करें, लेकिन असद्विचारों से, अविवेक से जो एक कामभावना उत्पन्न हो जाती है वह एक घृणित भावना है और उसमें मनुष्य मरकर अपने जीवन के समय को बरबाद कर देता है।
मैथुन का छठवाँ प्रकार- 6 वाँ ब्रह्मचर्य का दोष है स्त्री के अंगों का निरखना। इस प्रकरण में यद्यपि पुरुषों को लक्ष्य में लेकर समझाया जा रहा है क्योंकि साधुवों के समझाने के लिए यह ग्रंथ है अतएव पुरुष जैसे समझ जायें उस प्रकार से समझने की दृष्टि से वर्णन किया गया है, पर ब्रह्मचर्य तो दोनों के लिए आवश्यक है, तो उसके मुकाबले में स्त्रियों की ओर से वर्णन का ढंग भी समझते जायें। तो स्त्री के अंगों का निरीक्षण करना यह भी ब्रह्मचर्य का दोष है।
प्राप्त सुयोग की दुर्लभता- देखो ये इंद्रियाँ प्राप्त हुई हैं बड़ी कठिनता से। अब तक के संसार जीवन में अनंत काल तो इस जीव का निगोदपर्याय में व्यतीत हुआ, जहाँ पेड़, पृथ्वी जल जितना भी इनका अस्तित्त्व न था। वहाँ से निकला यह जीव तो अन्य स्थावर हुआ, फिर दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय हुआ। क्रमश: ये होना बड़ा कठिन था। असंज्ञी पंचेंद्रिय हो गया। तो मन बिना कुछ भी न करने में समर्थ रहा। विवेक ही नहीं है, संज्ञी पंचेंद्रिय हुआ तो उसमें भी नाना खटपट हैं। उनमें प्रधान हैं मनुष्य। और, फिर भी जैनशासन मिला, पवित्र धर्म मिला तो यहाँ ऐसा उत्कृष्ट समागम पाकर हमें इन इंद्रियों का सदुपयोग करना चाहिए।
श्रोत्र और नेत्रों का सदुपयोग- हमें कान मिले हैं तो हम चाहे अच्छी राग भरी बातें सुन लें या धर्मोपदेश सुन लें, जो चाहे कर सकते हैं, पर रागभरा द्वेषभरी बातों से सुनने से तो जीवन का दुरुपयोग है। धर्मोपदेश श्रवण करने से विषयों से निवृत्त होने की प्रेरणा मिले और अपने आत्मस्वरूप में लीन होने का संकल्प बने, ऐसी वाणी सुनना ही योग्य है। हमें कर्ण मिलें हैं तो धर्मोपदेश के सुनने में, धार्मिक चर्चा के श्रवण में इनका सदुपयोग करें। नेत्र मिले हैं तो देवदर्शन, शास्त्रस्वाध्याय, गुरुदर्शन, गुरुसेवा, इनमें इन नेत्रों का उपयोग करें। इससे आत्मा में एक परिणति विशुद्धि जगती है और विशेष पुण्य का बंध होता है धर्म का मार्ग मिलता है। हम इन इंद्रियों का इस तरह सदुपयोग करें। तो नेत्रों से स्त्री के अंगों का निरीक्षण करना यह ब्रह्मचर्य का दोष है। यह भी एक प्रकार का मैथुन है।
मैथुन का सातवाँ प्रकार- ब्रह्मचर्य के 7 वें दोष का नाम हैं संस्कार बनाना। जैसे पुराण में सुना होगा कि किसी राजपुत्र ने किसी राजकन्या को देखा तो वह इतना विह्वल हो गया कि उसने खाना पीना तक छोड़ दिया और निर्लज्ज होकर स्पष्ट शब्दों में यों कह दिया कि जब तक यह न मिलेगी तब तक हम भोजन न करेंगे। यह है इस संस्कार का परिणाम। देखिये जब कभी अपने को दु:ख आता है, चिंता होती है तो उसका बारबार स्मरण करें तो वह वेदना दूनी बढ़ती जाती है। और, उस बात को भूल जाय, कहीं और जगह अपना उपयोग लगाये तो उसमें यह वेदना समाप्त हो जाती है। जिसके चित्त में देखे हुए रूप का संस्कार बना है वह उसकी याद रखे तो वह एक कामवेग का 7 वाँ प्रकार है।