वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 597
From जैनकोष
किंपाकफलसंभोगसन्निभं तद्धि मैथुनम्।
आपातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यंतभीतिदम्।।
मैथुन का अष्टम नवम व दशम प्रकार- 8 वें क्रम में बताया है कि पूर्व के भागे हुए भोगों का स्मरण करना भी मैथुन है। कितनी व्यर्थ की बातें हैं। जो समय गुजर चुका उस गुजरे हुए समय में कैसे आराम से रहता था, कैसे भोग प्रसंग में रहता था, इन बातों की याद रखना भी एक अपने हृदय को मलिन बनाना है। तो यह भी एक दोष है। 9 वाँ वेग है भविष्यकाल में भोगने का चिंतन करना, आशा प्रतीक्षा करना और उसका एक स्वप्न जैसा देखना, यह 9 वाँ काम का भोग है, 10 वाँ भोग है विषय में पतित हो जाना। ये 10 प्रकार के मैथुन प्रसंग जीव के अहित करने वाले हैं।
सर्व मैथुनों से निवृत्ति में हित- जो आत्मकल्याण चाहते हैं वे इन दसों दोषों से बचें और आत्मकल्याण की उपासना में अपना चित्त लगायें। देखिये जगत में अन्यत्र कहीं भी कोई अपना शरण रक्षक नहीं है। समस्त बाह्य पदार्थों के प्रसंग एक विह्वलता के ही कारण बनते हैं, आत्मदया के लिए अमूल्य जीवन का कुछ समय जरूर लगाना चाहिए। केवल धन कमाने, अपना नाम पोजीशन रखने, अपने विषय कषायों की पूर्ति करने में ही समय गुजर गया तो इससे आत्मा का हित नहीं है। आत्महित है आत्मा की चर्या करने में, आत्मा का स्वरूप समझने में। आत्मस्वरूप जिसने पाया है अथवा जो आत्मस्वरूप के ज्ञाता हैं ऐसे ज्ञानी पुरुषों का सत्संग करें, चित्त अपना धर्म के लिए रहे तो पवित्रता बनी रहेगी और कर्म कटेंगे, आकुलता दूर होगी। जितना हम इन चेतन अचेतन पदार्थों के संसर्ग में रहेंगे, उनसे मोह बढायें, उनसे आशा रखें तो इन दुर्भावनाओं के कारण दूसरों के उपकार का भी बहाना बनायें, लेकिन ये सब दुर्भावनाएँ आत्मा को पतित करने वाली हैं और नरकगति में पहुँचाने वाली हैं।
ब्रह्मचर्य का परमफल- ब्रह्मचर्य एक दुर्धर व्रत है, लेकिन इसका फल परंपरया नियम से निर्वाण है। शुद्ध ब्रह्मचर्य की भावना ज्ञानी पुरुषों के ही बन सकती है। क्या करना है, क्या हमारा कर्तव्य है, किसलिए हम जी रहे हैं, जरा निर्णय तो कीजिए, मरण सबका आयेगा। जगत में जो जन्में हैं उनका मरण नियम से है। मरने के बाद फिर जन्म न मिले यह तो हो सकता है पर जन्म के बाद मरण न हो यह कभी नहीं हो सकता। जहाँ मरण के बाद जन्म नहीं होता उसही का नाम निर्वाण है और ऐसे आत्मा का ही नाम परमात्मा है जिसका अब जन्म न होगा और न मरण होगा। अब सोचिये कि स्वप्नवत संसार है या नहीं। कुछ समय की जिंदगी है। कुछ समय को लोग दिख रहे हैं और यहाँ भी कोई रक्षक है नहीं, सभी अपने-अपने स्वार्थ में रत हैं। ऐसे इस स्वार्थी संसार में हमें दुनिया को क्या बताना है और यह कितने समय का बताना है? मरण होगा तब हम आगे क्या रहे, किस प्रकार हमारा जीवन व्यतीत हो, कुछ इसकी भी तो सुध रखनी चाहिए। आत्मदया का नाम है आत्मकरुणा। विषयों से दूर रहने में और आत्मस्वरूप के निकट रहने में आत्मकल्याण भरा हुआ है। इसके विरुद्ध यह संसार अपने स्वरूप से तो दूर हो रहा है और बाह्यपदार्थों के निकट पहुँच रहा है, यही इसके क्लेश का कारण है।