वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 599
From जैनकोष
स्मरप्रकोपसंभूतान्स्त्रीकृतान्मैथुनोत्थितान्।
संसर्गप्रभवान्ज्ञात्वा दोषान् स्त्रीषु विरज्यताम्।।
मोह में यथार्थ अंतस्तत्त्व के भान का अभाव- इस संसारी प्राणी ने रागद्वेष मोह के अधीन होकर काम और भोग में अब तक प्रवृत्ति ही की, इससे विरक्त होकर समस्त परभावों से विविक्त अपने आपके स्वरूप में एकत्वस्वरूप निज चैतन्य का भान नहीं किया और यही कारण है कि यह जगत में अब तक रुलता चला आया है। सभी जीव ज्ञान और आनंदस्वरूप है। जैसे किसी चीज का विश्लेषण करना है तो उसमें उसकी चीज दिखाई जाती है ना? चौकी कैसी है? तो चौकी का जो कुछ गुण है, परिणमन है, आकार प्रकार है वह बताया जाता है ना, इसी तरह आत्मा में क्या है, इस बात की खोज करें तो क्या बताया जायेगा? वह कहीं पुद्गल की भाँति, ढेला पत्थर की भाँति स्पर्शरूप नहीं है, वह कहीं पिंडरूप नहीं है, आँखों देखने की चीज नहीं है फिर इस आत्मतत्त्व को हम किस प्रकार बतायें और निरखें? परपदार्थों का संकल्प विकल्प तोड़कर बड़े विश्राम से क्षणमात्र भी इसमें ठहरें तो इसे अपने आपमें उस परमज्योति के दर्शन होते हैं, जिसमें एक विलक्षण आनंद का अनुभव होता है। है यहाँ और कुछ नहीं, यह अमूर्त पदार्थ है, यहाँ केवल आनंद का अनुभव होता है और वह आनंद का अनुभव ज्ञानानुभूति के कारण है इस कारण आत्मा में परखने की कोई चीज मिलेगी तो वह ज्ञान और आनंद मिलेगा। आत्मा ज्ञानस्वरूप है व आनंदस्वरूप है। कई लोगों ने आत्मा को ज्ञानस्वरूप माना और कई दार्शनिकों ने आत्मा को आनंदस्वरूप माना है। और, है यह आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप, यह स्वरूप मोह में प्राणियों को विदित नहीं होता है।
आत्मतत्त्व की प्रतीति में ही सत्य सूझ की प्रगति- जो जानन प्रकाश है उस प्रकाश स्वरूप यह आत्मा है। यह सबसे न्यारा है, इसे कोर्इ क्लेश नहीं है। सब पदार्थ विविक्त हैं, किसी के कुछ भी परिणमन से इस आत्मतत्त्व में कोई परिणति नहीं बनती है। यह आत्मा अपने आपमें ही अपनी कल्पनाएँ बनाकर अपनी योग्यता के अनुसार परिणमन किया करता है। एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में कर्तव्य रंच भी नहीं है। ऐसा ही ज्ञानस्वरूप यह आत्मा जो संसार में रुल रहा है और संसार के जिस किसी भव में यह जन्म लेता है तो उस ही भव को एक अपना सर्वस्व समझता है और उस भव के योग्य जो व्यवस्थायें हैं उनकी पूर्ति में ही अपनी बुद्धिमानी मानता है। यद्यपि गृहस्थावस्था में व्यवस्था की पूर्ति करना एक कर्तव्य है लेकिन दृष्टि में यही ही सर्वस्व नहीं है। इसे तो यह स्वप्न मानता है और गृहस्थी के सारे कर्तव्य उसे करने पड़ते हैं, पर चित्त में लगन तो एक आत्मतत्त्व की है।
ज्ञान का सौरभ आचरण- एक कथानक बहुत प्रसिद्ध है अरहदास सेठ की होली कि अष्टाह्निका के दिनों में जब कि जनता नाना प्रकार के आमोद प्रमोद किया करती थी, राजा ने एक वनलीला का प्रोग्राम रचा और नगर भर में यह घोषणा करायी कि सब लोग नगर खाली कर दें। नगर की व्यवस्था सिपाही लोग करेंगे और वन में दो निवास बने हैं- स्त्रियों का अलग और पुरुषों का अलग। सभी लोग वनविहार का आनंद लूटेंगे। यह घोषणा सुनकर अरहदास ने सोचा कि हमने अष्टाह्निका का महोत्सव में पूजन का काम शुरू किया है, इस समय हम कैसे इसे छोड़कर जंगल पहुँच सकेंगे। तो राजा के पास पहुँचा बड़े भेंट सम्मान सहित निवेदन करके कहा- महाराज हमने अष्टाह्निका में पूजन का व्रत लिया है। हम रात दिन धर्मचर्चा में लगे रहते हैं, इस बीच में हम कैसे जंगल पहुँच सकेंगे? तो राजा ने उस सेठ के परिवार को वन जाने से छूट दे दी। अब सब जनता तो वनविहार के लिए नगर छोड़कर पहुँच गयी, केवल अरहदास सेठ के घर में सभी लो रह गए। रात दिन धर्मचर्चा में उनका समय व्यतीत हो रहा था। उन्हीं दिनों में राजा की यह इच्छा हुई कि हम जहाँ रानियों का वनविहार है वहाँ जायें, तो मंत्रियों ने बहुत मना किया- महाराज आपने ही तो यह व्यवस्था बनायी और आप ही अब वनविहार के स्त्री निवास में जायेंगे तो यह बात युक्त न होगी। महाराज चलो नगर चलें, देखें कहाँ क्या हो रहा है? सो मंत्रीगण राजा का दिल बहलाते हुए नगर में ले गए। रात्रि का समय था। अरहदास सेठ के घर के पीछे छिपकर वार्ता सुनने लगे, वहाँ कोर्इ वार्ता हो रही थी। अरहदास सेठ अपने सम्यक्त्व की कथा सुना रहा था। उसके 7 सेठानियाँ थी। सभी सेठानियाँ कहें ठीक, पर सबसे छोटी सेठानी कहे बिल्कुल गलत। यों सभी सेठानियाँ कथा कहें तो सभी कहें बिल्कुल सही, पर सबसे छोटी सेठानी कहे बिल्कुल गलत। कुछ कथा ऐसी भी थी जो राजा के घटना की थी। सभी सेठानियाँ सही-सही कहती थी, पर वह छोटी सेठानी झूठ बतलाती थी। राजा ने दूसरे दिन सेठ के घर के सभी लोगों को बुलवाया और कहा कि रात्रि की वार्ता में सभी सेठानियाँ तो सही-सही कह रही थी और छोटी सेठानी झूठ-झूठ कह रही थी, इसका न्याय करेंगे। राजा ने पूछा कि सभी सेठानियाँ तो उस कथा को सही कह रही थी और छोटी सेठानी क्यों झूठ कह रही थी? तो छोटी सेठानी ने उत्तर कुछ भी न दिया, उसने सारे वस्त्र आभूषण उतार कर रख दिये और यों ही एक धोती पहिनकर मौन सहित वन को चली गई। उसकी शांत मुद्रा यह बता रही थी कि सत्य तो यह है।
प्रयोग से ही प्रयोग्य का विकास- किसी भी बात में उसका सही आनंद तब तक नहीं आता जब तक कि उसमें कुछ प्रयोग नहीं बनता। कभी बने, यद्यपि जीव के साथ कषायों के वेग लगे हुए हैं, कभी चलित होता लेकिन कभी तो भान होना चाहिए जिसका स्मरण करके हम इस संसार में भयभीत न रह सकें। अपने आपमें नि:शंक और निर्भय रह सकें यह बात हो सकती है तो सम्यग्दर्शन होने पर। जो पुरुष काम और भोग से विरक्त होकर ब्रह्मचर्य की उपासना करते हैं उन्हें आत्मध्यान होना सुगम है। एतदर्थ 10 प्रकार के मैथुन त्याज्य होने चाहिए अथवा त्यक्त हो ही जाते हैं। कामवेदना एक ऐसी तीव्र व्यर्थ की वेदना है अटपट जिसकी न जड़, न कारण, केवल मनोज है, मन में कल्पना उठी और कामवासना हुई। उस कामवासना में जो पुरुष रत है, ऐसे पुरुष के शुद्धि, पात्रता, ध्यान, ये नहीं बन सकते हैं, अत: अपने आपकी पवित्रता के लिए यह आवश्यक है कि हम ऐसा अपना उपयोग बनायें कि जिससे हमारा उपयोग निर्मल बना रहे और गंदी बातों के लिए चित्त ही न जाय।
सम त्रिवर्गसाधना में गृहस्थधर्म की पूर्ति- पुरुषार्थ चार होते हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। गृहस्थों को तीन प्रकार के वर्ग बताये गए- धर्म, अर्थ और काम। मोक्ष की बात इसलिए नहीं कही कि इस समय में मोक्ष पुरुषार्थ की साधना तो होती नहीं, निर्वाण होता नहीं- दूसरी बात मोक्ष के प्रसंग में आजकल जितनी बात की जा सकती है वह धर्म पुरुषार्थ में शामिल हो जाती है। आजकल हीन संहनन होने से मोक्ष पुरुषार्थ बनता नहीं है। और, गृहस्थों की बात कह रहे हैं- वहाँ त्रिवर्ग की प्रसिद्धि है, मोक्ष को अपवर्ग कहा है, जहाँ तीन वर्ग नहीं रहते, केवल मोक्ष ही रहता है उसे अपवर्ग कहा करते हैं। तो तीन वर्ग हुए, धर्म, अर्थ, काम। मोक्ष के एवज में चौथी बात कोई और ले लीजिए, जिसके बिना आपका काम न चलता हो और वह बात बड़ी सुहावनी भी लगे। चौथी चीज ले लीजिए निद्रा लेना, सोना। यह कितनी सुहावनी बात है। तो अब चार काम हो गए- धर्म, अर्थ, काम और निद्रा लेना। धर्म में धर्म पुरुषार्थ, पुण्य कार्य, ऐसे ऐसे शुभोपयोग के कार्य करना जिससे उपयोग उनमें ही लगा रहे। अर्थ के मायने आजीविका का कार्य करना और काम के मायने पालन-पोषण, परोपकार; दुनिया को सत्पथ में ले जाने का प्रयास, ये सब उनके पालनपोषण में, कामपुरुषार्थ में शामिल है। तीन बातें तो यों हुई। चौथी बात कही है नींद लेना। दिन रात में समय कितना होता है? चौबीस घंटे का। और काम कितने हैं? चार। तो 6-6 घंटे का समय चारों कामों में बाँट दीजिए, बिल्कुल ठीक विभाजन हो जायेगा। 6 घंटे धर्म के लिए, 6 घंटे अर्थ के लिए, 6 घंटे काम के लिए और 6 घंटे निद्रा लेने के लिए। देखो सुबह 4 बजे जब नींद खुलती है तब से 10 बजे तक धर्मकार्यों में रहें। इतने समय में महिलायें जो किसी त्यागी व्रती के लिए आहार दान का कार्य करती हैं वह भी धर्म पुरुषार्थ में शामिल है, 10 बजे से लेकर शाम के 4 बजे खूब धनार्जन का काम करें, नौकरी पेशा वाले हों, चाहे व्यापारी हों, चार बजे शाम से फिर दस बजे रात तक कामपुरुषार्थ में रहें अर्थात् देशसेवा, समाजसेवा, गृहसेवा, तथा उचित भोगोपभोग वगैरह के जो भी कार्य हैं उनमें रहें, इसके बाद दस बजे रात से फिर 4 बजे सुबह तक निद्रा लेने अर्थात् सोने का काम करें। इस दिनचर्या में एक आध घंटे का समय आगे पीछे भी ऐसा रख सकते हैं कि जिससे सभी काम ठीक ठीक निपटते जायें। मतलब सारा यह है कि उपयोग ऐसे काम में लगायें कि अपना उपयोग निशुद्ध रहे और ब्रह्मचर्य के विरुद्ध कामवासना के समर्थक कोई विकार अपने में न जगें।
कर्तव्यशीलता से सफलता का लाभ-‘प्रश्नोत्तरण मालिका’ में लिखा है कि ‘‘को बैरी नन्वनुद्योग:, इस जीव का बैरी कौन है? उत्तर देते हैं- उद्योग न करना, बेकार रहना। कई लोग ऐसा सोचते हैं कि हमारा कुछ ऐसा उदय आया है कि कोई काम ही नहीं निभता, किसी काम में सफलता ही नहीं होती। कोई काम ही नहीं है करने को, खाली बैठे हैं। अरे क्यों खाली बैठे हो? कोई काम नहीं है तो शरीर में दीन दु:खियों का उपकार तो कर सकते हो। आजकल तो ऐसे सेवक मिलते ही नहीं, लोग परेशान रहते हैं। तो यदि आप खाली बैठे हैं, आपके पास कोई काम नहीं है तो आप शरीर से दीन दु:खियों की सेवा कीजिए। उससे कितना लाभ होगा? समय का सदुपयोग होगा, लोगों की दृष्टि में इज्जत बढ़ेगी और इससे ऐसा मधुर वातावरण होगा कि पुण्य भी शीघ्र उदय में आयेगा। बेकार कभी भी नहीं बैठना चाहिए। किसी न किसी शुभकार्य में अपना उपयोग लगाये रहें, पूजा, स्वाध्याय, उपवास, सत्संग आदि ये सब शुभ कार्य हैं। इनमें अपना उपयोग लगा रहे। धनोपार्जन भी करें। यह तो है गृहस्थों की बात। और, साधु होकर, त्यागी होकर जो रहें उन्हें भी ऐसे शुभ कार्यों में व्यस्त रहना चाहिए। इसीलिए 6 आवश्यक कार्य साधुवों को भी बताये गए हैं- पूजन, वंदन, प्रतिक्रमण, सामायिक, स्तवन, स्वाध्याय। इन कार्यों में उन्हें व्यस्त रहना चाहिए। ऐसे कार्यों में उपयोग रहेगा तो ब्रह्मचर्य का निर्वाह सुगम होगा और फिर जिनकी दृष्टि अपने आत्मस्वरूप में लगी हुई है उनको तो ये दुर्धर महाव्रत भी एक लीलामात्र है। काम और भोगों से विरक्त होकर ब्रह्मस्वरूप की उपासना करना अपना हितकारी कर्तव्य है।