वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 598
From जैनकोष
विरज्य कामभोगेषु ये ब्रह्म समुपासते।
एते दश महादोषास्तैस्त्याज्या भावशुद्धये।।
मैथुन की दुर्विपाकता- यह मैथुन प्रसंग, यह काम भोग इंद्रायण फल की तरह है। इंद्रायण फल देखने में भला, सूँघने में भला और खाने में भला, किंतु जो इन्सान इस फल को खा लेता है उसकी मृत्यु हो जाती है, उसमें हलाहल विष भरा हुआ है, इसी तरह यह काम मैथुन है। यह कुछ काल पर्यंत सोचने में भला, भोगने में भला, कुछ सुखदायक सा मालूम होता है, किंतु इसके विपाक के समय में बहुत ही भय और क्लेश उत्पन्न होता है। सब धर्म एक ब्रह्मचर्य की नींव पर खड़े हुए हैं। इस धर्म के लिए जितना जो कुछ भी करें, दर्शन, पूजन, स्वाध्याय, विधान, बड़े-बड़े उत्सव समारोह पंच कल्याणक और अनेक व्रत तपश्चरण आदिक ये सब ब्रह्मचर्य होने पर शोभा देते हैं। ब्रह्मचर्य का तो व्रत न हो, अंधाधुंध कामवासना बना करती हो और फिर इन व्यवहारिक आचरणों को करे तो उन आचरणों से इस आत्मा का हित होता है?
धर्मपालन का फल परमविश्राम- धर्मपालन का उद्देश्य तो यह है कि यह मैं आत्मा अपने आत्मस्वरूप में स्थित होऊँ, बाहर में दुनिया में सर्वत्र विकल्प ज्वालायें बनी हुई हैं, संकट ही संकट समाये हुए हैं, हम अपने से च्युत होकर बाहर में कुछ दृष्टि लगाते हैं, कुछ संबंध बनाते हैं तो वहाँ क्लेश ही क्लेश उत्पन्न होते हैं, सुख शांति का नाम निशान नहीं है। तब कर्तव्य यह है कि हम बाह्य पदार्थों का संकल्प-विकल्प तोड़कर कुछ क्षण अपने आपमें विश्राम लें। देखिये- जब शरीर थक जाता है तो ढीलेढाले सोकर विश्राम लिया जाता है। सब काम रोककर शरीर को विश्राम में रखकर थकान मिटाई जाती है और यहाँ यह आत्मा नाना विकल्प मचा-मचाकर अनेक चिंताएँ शोक बना बनाकर, सोच सोचकर थक गया हो तो ऐसे आत्मा के विश्राम का क्या उपाय है? सो बतावो। भले ही बड़े कोमल गद्दे तकिया लगे हों, आसपास बड़े सुगंधित पुष्प आदिक सजाये गए हों, बहुत सुंदर हवा का प्रबंध हो, जलपान का अच्छा प्रबंध हो, सब तरह के आराम हों, नौकर-चाकर भी जीहजूरी में खड़े हों, सब तरह के आराम में रहकर भी धन वैभव के संचय की चिंता है तो गद्दा तक्की में पड़ा हुआ भी वह चिंतित है। गद्दा तकिये वगैरह से विश्राम किसी को न होगा। विश्राम तो सही ज्ञान होने पर मिलता है। तो अपना कर्तव्य है कि सर्व संकल्पविकल्पों को त्यागकर अपने आत्मस्वरूप को निरखें और एक बहुत बड़ा विश्राम प्राप्त करें। जो विलक्षण है, अनुपम आत्मीय आनंद को देने वाला है ऐसे विश्राम करने का ही नाम है परमार्थ से ब्रह्मचर्य।
ब्रह्मचर्यव्रत से परमपवित्रता- तो जो परमार्थ ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता है उसका कर्तव्य है कि वह मन से, वचन से, काय से इस व्यवहार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें। ब्रह्मचारी सदा शुचि:। ब्रह्मचारी पुरुष सदा पवित्र होता है। सूतक पातक निर्णय में बताया है ना। किसी के जन्म का इतने दिन का सूतक है, मरने का इतने दिन का पातक है किंतु व्यभिचारी पुरुष और स्त्री के सदैव सूतक पातक रहता है, वह कभी शुद्ध नहीं कहलाता। तब समझ लीजिए कि ब्रह्मचर्य के विपरीत कुशील करने वाले को सदैव पातक बताया गया है। ब्रह्मचर्य से आत्मा में पवित्रता बढ़ती है, आत्मबल बढ़ता है, पुण्य बढ़ता है, शांति मिलती है, और वह पुरुष अन्य लोगों के द्वारा पूजा जाता है। बस एक धर्मपालन का ही अपना निर्णय बनायें, उसके अनुसार ही अपनी समस्त चर्या बनायें। इस मार्ग से हम आप सबको कल्याण प्राप्त होगा। भविष्य काल भी हमारा धार्मिक प्रसंग में व्यतीत होगा, समीचीन मरण होगा। यदि समतापूर्वक मर सके तो हमारा आगे का भव भी सुखपूर्वक व्यतीत होगा। इन सबके लिए हमें इस ब्रह्मचर्यव्रत पर अधिकाधिक दृष्टि रखनी चाहिए और इस ब्रह्मचर्य के पालन का अधिकाधिक यत्न रखना चाहिए।