वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 601
From जैनकोष
मूले ज्येष्ठस्य मध्याह्ने व्यभ्रे नभसि भास्कर:।
न प्लोषति तथा लोकं यथा दीप्त: स्मरानल:।।
इंद्रियविजय का उपाय- भगवान की निश्चय से भक्तजन यों स्तुति करते हैं कि हे प्रभो ! आपने अपने आपके ज्ञानस्वरूप को अधिक समझा और इसके प्रताप से इंद्रियों पर विजय पाकर जिन बने हैं, जितमोह बने हैं। इंद्रिय का विजय किस तरह पाया जाता है, इस संबंध में एक उपाय की बात सुनिये। विषयभोगों का संबंध तीन प्रकार के तत्त्वों से है। जिस किसी भी इंद्रिय का विषय भोगा जाता है तो वहाँ तीन प्रक्रिया चलती हैं- एक तो सामने विषयभूत पदार्थ का संग मिलना। इंद्रिय के विषयभूत पदार्थ हैं धन, स्त्री, रूप, शब्द, स्पर्श, रस, भोजन आदि। उनका संग मिलना एक प्रक्रिया तो यह है, दूसरी बात यह है कि भोगने के लिए इन द्रव्येंद्रियों का जो पौद्गलिक हैं हाथ, पैर, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत, यह सारा शरीर जो इंद्रियरूप है इस शरीर की प्रवृत्ति होना, और तीसरी बात बनती है अंतरंग में कल्पनाएँ बनना, ज्ञान बनना; उपयोग लगना। इसे सैद्धांतिक शब्दों में यों कहते हैं भावइंद्रिय, द्रव्यइंद्रिय और विषय, इन तीन पदार्थों की एक सम्मिलित प्रक्रिया से भोग उपभोग बनते हैं। तब इन इंद्रियों के विजय के लिए क्या करना चाहिए, कितना काम करना चाहिए? बहुत काम नहीं करना है, केवल एक ही काम करने की आवश्यकता है। वह क्या? इन तीन से पृथक् अपने ज्ञानस्वभाव को समझना। इस भेदविज्ञान में उन तीनों का ही विजय हो जाता है।
इंद्रियविजयोपाय का विवरण- इंद्रिय से भी न्यारा यह मैं ज्ञानमात्र हूँ। ये इंद्रियाँ पौद्गलिक हैं। इन भावेंद्रिय से भी जुदा ज्ञानस्वरूप मैं हूँ ये भावेंद्रिय हैं भीतर में ज्ञानरूप, ये खंड-खंड जानती हैं। जिनकी जानकारी उपयोग में है और बाकी अन्य कुछ भी उपयोग में नहीं है। सर्वज्ञदेव का ज्ञान तीन लोक अलोक को एक साथ जानता है। अतएव उसके ज्ञान को खंडज्ञान नहीं कहा। भावइंद्रिय से अर्थात् इंद्रिय से हम जो कुछ भीतर में जानते हैं वह अंश अंश करके जानते हैं, लेकिन अंश अंश जानना मेरा स्वरूप नहीं है। यह कर्मों के आवरण से भेद बन गया है। मैं हूँ अखंड ज्ञानस्वरूप। अखंड ज्ञानस्वरूप अपनी भावना करके इस खंडज्ञानरूप इंद्रिय को जीतना चाहिए। ये सब विषय हैं सब संग, किंतु मैं आत्मा हूँ नि:संग केवल ज्ञानानंदस्वरूप। उस स्वरूप की भावना करके विषयों के प्रसंग को जीत लेना चाहिए। यों द्रव्यइंद्रिय, भावइंद्रिय और विषयों से विरक्त होकर जो ज्ञानस्वभाव में अधिक अपने आपके स्वरूप को जानता है उसे जिन याने इंद्रियों को जीतने वाला कहा है। कहते हैं ना जिनेंद्रदेव। जिनका अर्थ है- कर्मों को जीते, विषयकषायों को जीते तो इस स्तुति में जिन शब्द का अर्थ किया गया वह सम्यग्दृष्टि जीव, जो कामभोगों से विरक्त होकर निज ब्रह्मस्वरूप की उपासना करता है। हे प्रभो ! आप ऐसे जिन हो।
निर्मोह प्रभुस्वरूप की उपासना- हे नाथ !आप जितमोह हो। आपने मोहभाव से जुदा केवल ज्ञानज्योति स्वरूप अपने अंतस्तत्त्व का अनुभव किया है जिसके कारण आप जितमोह हुए हैं, फिर इसी निर्मोह ज्ञानानंदस्वरूप अंतस्तत्त्व की उपासना करके आपने मोह का सर्वथा क्षय कर दिया है, अतएव आप क्षीणमोह हैं। यों भगवान की स्तुति भगवान के गुणों के वर्णन से की जाती है।
विवेकातिरिक्त जलावगाहादि अन्य उपायों से कामव्यथा के शमन की असंभवता- प्रभु ने जिन इंद्रियविषयों को जीत लिया है उन इन इंद्रियविषयों के उत्पात की बात चल रही है। उन 5 विषयों में भयंकर अहितकर विषय है काम। इस काम-अग्नि से जो ज्वाला उत्पन्न होती है उस ज्वाला की शांति समुद्र भर पानी सींच दिया जाय तब भी नहीं हो सकती है। ऐसा ही यह काम का वेग है, उससे निवृत्त होने के लिए कर्तव्य यह है कि हम ऐसे धार्मिक कार्यों में अपने उपयोग को लगायें और गृहस्थी के योग्य आजीविका के साधनों में कुछ समय अपना चित्त दें, बेकारी अपने आपमें न रहे, अगर काम न मिले तो दुनिया का उपकार करें। उपकार का क्षेत्र तो बहुत पड़ा हुआ है। उद्योगहीन रहकर जीवन बिताने से अनेक दुर्गुण प्रकट हो जाते हैं। अपना समय धार्मिक कृत्यों में व्यतीत हो, विवेक से चलें तो इसमें अपना लाभ है।