वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 602
From जैनकोष
हृदि ज्वलित कामाग्रि: पूर्वमेव शरीरिणाम्।
भस्मसात्कुरुते पश्चादंगोपांगानि निर्दय:।।
कामानल का प्रकट दाह- जेठ का तो महीना हो, मूल नक्षत्र का दिन हो और बादल रहित आकाश हो, उस समय की दोपहर में जो सूर्य की गर्मी होती है उससे तो संताप उत्पन्न होता है उससे कई गुना अधिक कामाग्नि से प्रज्ज्वलित होकर इस मोही जीव के संताप उत्पन्न होता है। एक दिमाग ही तो बदल गया, अनुचित की ओर बुद्धि लग गयी, उसमें जो मानसिक व्यथा उत्पन्न होती है उसकी दाह जेष्ठ के मूल्य नक्षत्र के भयानक सूर्य से भी अधिक है। धर्मकार्य में रुचि रखने वाले पुरुष को सर्वप्रथम यह ब्रह्मचर्यव्रत आधार है। जिस पुरुष के मन से, वचन से, काय से, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन है उस पुरुष के ही रत्नत्रयरूप धर्मविकास की प्राप्ति होती है। एक जाति की कषाय है, अन्यथा समीक्षा करके देखो तो उस कामविकार के भाव से और उसमें किए हुए यत्न से इस आत्मा को लाभ क्या होता है? बरबादी ही सारी पड़ी हुई है। जो पुरुष निर्दोष ब्रह्मचर्य की साधना रखते हैं उनके ही उपयोग में यह आत्मतत्त्व हस्त पर रखे हुए आँवले की तरह स्पष्ट प्रतिभात हो सकता है। जिन्हें आत्मध्यान होता है, आत्मस्मृति बनती है वे पुरुष एक परमार्थ पथ में लगे हुए होते हैं और सत्य शिव सुंदर सर्वकल्याण उनको ही प्राप्त होता है।