वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 604
From जैनकोष
स्मरव्यालविषोद्गारैर्वीक्ष्य विश्वं कदार्थितम्।
यामिन: शरणं जग्मुर्विवेकविनतासुतम्।।
कामविषमूर्छितों को जगाने के लिये योगियों का यत्न- देखिये जैसे किसी सर्प आदिक के डसने से किसी को विष चढ़ जाय तो उसके उतारने के लिए मंत्रवादी प्रयत्न करते हैं, इसी तरह समझिये कि महाबलवान कामरूपी सर्प के विषव्यापार से मूर्छित हुए इस विश्व को निरखकर योगीजन विवेक सहित उनके विवेक के लिए प्रयत्न करते हैं। जगत में इतना ही तो एक रहस्य है कि यह मनुष्य, यह जीव अपने आपको अपने स्वरूपमात्र नहीं मानता तो इसके परपदार्थों में मोह उत्पन्न होता है। बस यही तो विपत्ति का मूल है, और जिस किसी भी उपाय से इसको अपने आपमें यह विवेक जग जाय कि मेरा तो स्वरूप एतावन् मात्र है जितना यह मैं अपने क्षेत्र में अपने प्रदेश में ज्ञानज्योति स्वरूप हूँ, आनंदस्वरूप हूँ, जो कुछ मैं अपने आपमें प्रवर्तन कर रहा हूँ उतना ही मैं हूँ और मेरा प्रभाव, मेरी दुनिया, मेरा सर्वस्व मेरे स्वरूप में ही है, इससे बाहर नहीं है, इतना ज्ञान विवेक श्रद्धान ज्ञानी पुरुष में हुआ करता है, वह चाहे गृहस्थ हो अथवा साधु हो, मूल में इतना ज्ञान हुए बिना वह मोक्षमार्गी नहीं हो सकता। अपने स्वरूप का परिचय होने पर फिर इस ही उपयोग की रक्षा के लिए बाहर में जो भी काम करना पड़ता है वे सब भी काम कर्मयोग कहलाते हैं।
ज्ञानी गृहस्थ की प्रवृत्ति- ज्ञानी गृहस्थ ने चाव से गृहस्थी नहीं बनायी, किंतु अन्य उपाय अपनी रक्षा का नहीं समझ पाया इसलिए गृहस्थी बनायी है। जो चाव से गृहस्थी बनाते हैं वे ज्ञानी नहीं हैं। इस आत्मतत्त्व से परिचित ज्ञानी पुरुष ने अपनी परिस्थिति के माफिक साधन जुटाया, संन्यास स्थिति में अपना निर्वाह नहीं समझ पाया और साथ ही मैं व्यसनों में, विषयों में पतित न हो जाऊँ, यह भी भावना रखी, तो इन दो भावनाओं के बीच की स्थिति है गृहस्थी का अंगीकार करना।
ज्ञानी गृहस्थ की वृत्ति पर एक दृष्टांत- ज्ञानी गृहस्थ के क्या अंतर्दृष्टि रहती है, इसे एक उदाहरण से समझिये। किसी सेठ की मृत्यु हो रही थी। उसके केवल एक बालक था। घर में और कोई था नहीं तो उसने गाँव के मुख्य 4-5 लोगों बुलाकर उनके नाम ट्रष्टनामा लिख दिया। ये ये इस सारी संपत्ति के ट्रष्टी हैं और ये इस बालक की रक्षा करेंगे। जब बालक अपनी उम्र पर आ जायेगा तो ये सारी जायदाद उसे सौंप देंगे। अब सेठ का तो मरण हो गया। कुछ दिन गुजरने के बाद वह बालक सड़क पर खेल रहा था, किसी ठग ने उस बालक को देखा। उसके कोई बालक था नहीं, सो वह उसे अपने घर उठा ले गया। अपनी स्त्री ठगिनी को उसको पाल लेने के लिए कहा। वह ठगिनी स्त्री भी उस सुंदर लड़के को पाकर बड़ी खुश हुई। खूब प्यार से उसे पाला पोषा। अब वह बालक तो यही समझ रहा था कि यह मेरी माँ है, यह पिता है, यह मेरी खेती है, उसी को अपनी जायदाद समझता था। जब 18-19 वर्ष गुजर गए तो शहर की एक गली से वह लड़का निकला। एक ट्रष्टी ने उसे पहचान लिया और बोला- ऐ बालक, तू अभी तक कहाँ था? तेरी यह 10 लाख की जायदाद हम कब तक संभालेंगे? अब तू इसे ले ले, इसकी रक्षा कर। उस बालक को इतनी बात सुनकर आश्चर्य हुआ। आखिर यही बात तीन चार लोगों ने और कही तो उसे विश्वास हो गया कि ये ठीक कह रहे होंगे। उनसे वह लड़का कहने लगा कि अच्छा फिर देखेंगे। झट अपने घर पहुँचा। ठगनी माँ के पैर पकड़कर वह शुद्ध हृदय से गद्गद् होकर पूछने लगा कि माँ यह तो बतावो कि मैं किसका लड़का हूँ? ठगनी माँ उस बच्चे की मोहनी मुद्रा को निरखकर बोली कि तू अमुक सेठ का लड़का है। इतनी बात सुनकर उसके चित्त में सब उजाला हो गया। वे समझ गया कि वे लोग ठीक ही कहते थे। जब मेरे माता पिता गुजर गए तो ये मुझे उठा लाये थे। उसके सही ज्ञान जग गया। ज्ञान जग जाने के बाद क्या वह ठगनी को ठगनी और ठग को ठग कहेगा? वह तो ठगनी को माता और ठग को पिता ही कहेगा। वह वैसे ही उन्हें माता पिता कह रहा है, उन खेतों को अपनी खेती कह रहा है, उन खेतों में कोई जानवर घुस जाय तो उसे भी वह खेद रहा है। सारी बातें वह पूर्ववत् कर रहा है, पर उसके चित्त में यह बात बैठ गयी है कि मेरा यह घर नहीं, ये मेरे माँ बाप नहीं।
ज्ञानी गृहस्थ की उपेक्षामयी अंतर्वृत्ति- ठीक ऐसी ही उपेक्षारूप स्थिति सम्यग्दृष्टि गृहस्थ की होती है। भेदविज्ञान से जान लिया कि इस मुझ आत्मा का कोई जनक नहीं होता। आत्मा स्वयं सिद्ध है, अनादि से है और इसमें उत्पाद व्यय करने का स्वभाव है, जैसे कि सभी पदार्थों में होता है। यों उत्पाद व्यय करते हुए अनादि से चला आ रहा हूँ, अनंत काल तक चलता रहूँगा, मेरा कोई जनक नहीं, मेरा वैभव मात्र वही है जो कभी मेरा साथ नहीं छोड़ता। वह है स्वरूप, वही मेरी विभूति है। इतना सब जानकर भी व्यवहार में जो माता पिता हैं क्या उन्हें अपने माता नहीं कहता? जो भी वैभव है क्या उसकी रक्षा न करेगा? वह दुकान संभालता है, सारे वैभव की संभाल करता है, सबको अपना अपना भी कहता है, पर सब कुछ करने के बावजूद भी उसकी दृष्टि में पूर्ण उजेला है कि मेरा तो मात्र मैं हूँ।
विपद्धाम संसार में विवेकी का कर्तव्य- यह संसार विपत्तियों का स्थान है। एक गहन वन है जिसमें क्लेशों की दावाग्नि बहुत प्रज्ज्वलित हो रही है। इस परिस्थिति में हमारा कर्तव्य यदि मात्र लौकिक निर्वाह ही रहा, परमार्थ काम न किया तो इसका परिणाम अच्छा तो नहीं निकलेगा। रही एक यह बात कि आजकल अनेक पुरुषों के आजीविका की चिंता बनी रहती है, लेकिन चिंता करना यह सब अज्ञान का परिणाम है। अपनी आवश्यकताएँ घटा दें, अपनी सात्विक वृत्ति बनायें। उसमें इतना ही तो नुकसान हैं कि लोग यह कह उठेंगे कि यह इस तरह से रहता है। इससे ज्यादा कोई नुकसान है क्या? मगर जो बुद्धिमान हैं, विवेकी हैं वे उसके गुण गायेंगे। यह कितना विरक्त पुरुष हैं, कितना संतुष्ट है, और साधारण वैभव में व्यवसाय में संतुष्ट रहकर धर्मध्यान में कितना समय लगाते हैं आप यह बतलावें? कोई पुरुष लौकिक इज्जत रखने के लिए रात दिन वैभव की चिंता और व्यवसाय करता है और कोई पुरुष अपनी लौकिक इज्जत की परवाह न करके केवल एक आत्मरक्षा के हेतु ज्ञानार्जन करता है, ध्यानसाधना करता है, अपने आपके उपयोग को अपने स्वरूप की ओर अधिकाधिक लगाना चाहता है तो इन दो पुरुषों में अंत में लाभ में कौन रहेगा? जो आत्मरक्षा के लिए यत्न करता है, आत्मदृष्टि संभालता है वह पुरुष लाभ में रहेगा। तो बजाय चिंता करने के इस ओर यत्न करें कि हमारा इस बिना भी काम चल सकता है।
साधुता- अपनी आवश्यकतावों को कम करने के मायने ही साधुता है। साधुता का अर्थ और क्या है? गृहस्थों में भी साधुता होती है और साधुवों में भी साधुता प्रकट होती है। उनमें ये दो बातें मिलेंगी- अपनी आवश्यकतावों को कम करना और उपयोग को आत्मनिरीक्षण में अधिक लगाना। इसके विरुद्ध जो आवश्यकतावों को बढ़ाने का यत्न रखते हैं और आत्मतत्त्व की ओर उपयोग का कोई ध्यान भी नहीं करते हैं उनमें साधुता नहीं है। साधु का मतलब सज्जनपुरुष, मोक्षमार्गीपुरुष। इन सब कल्याण की बातों को प्राप्त करने के लिए काम और भागों से विरक्ति पाने की आवश्यकता है और अपने ज्ञानस्वरूपमात्र प्रभु की उपासना की आवश्यकता है।