वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 605
From जैनकोष
एक एव स्मरो वीर: स चैकोऽचिंत्यविक्रम:।
अवज्ञयैव येनेदं पादपीठीकृतं जगत्।।
विश्व को कामविषकदर्थित निरखकर योगियों का विवेकशरणगमन- देखिये पंचेंद्रिय के विषयों में कुछ विषय तो ऐसे हैं कि जिनकी साधारणतया ससीम साधना कर लेना किसी पद में आवश्यक है, किंतु ऐसे ही दुर्गंधित वातावरण में रहने से शरीर अस्वस्थ हो जाता है, अतएव दुर्गंधित वातावरण से बचकर कुछ सुरभित वातावरण में रहना आवश्यक है। यों कुछ बात प्रयोजक है तो किसी सीमा में, लेकिन यह कामवेदनाविषयक व्यापार तो इतना अहित करता है कि जिसके वश हुआ यह पुरुष मन, वचन, काय सब बलों को खो बैठता है, चित्त स्थिर नहीं रह पाता, कभी एक लक्ष्य भी नहीं बन पाता। कामरूपी सर्प के विष से पीड़ित इस जगत को देखकर संयमी मुनि विवेकरूपी गरुड की शरण में प्राप्त होते हैं अर्थात् उन्होंने विवेक को काम से बचने का उपाय माना है।
काम की विडंबना- भैया ! गिरने का थोड़ा कोई भी प्रसंग आये तो गिरना आसान है और फिर गिरते जाना भी आसान रहता है, किंतु प्रारंभिक गिरावट से बचने का यत्न हो जाय तो फिर बचने का यत्न प्रबल होता जाता है। समयसार में 5 इंद्रिय के विषय को काम और भोग शब्द से कहा है। काम की मुख्यता है स्पर्शन और रसनाइंद्रिय में। भोग में पदार्थ का बिगाड़ नहीं होता। वह तो ज्यों का त्यों पूर्ण सुरक्षित होता है, किंतु काम में पदार्थ दलमले जाते हैं। जैसे रसनाइंद्रिय का विषय है भोजन, तो पदार्थ को खूब दलामला जाता तब तो भोग में आता है। भोग की अपेक्षा इस काम को अधिक घृणित कहा गया है। उससे बचने का उपाय एक विवेक है। जैसे एक स्वाद की बात ले लीजिए। किसी भोजन में उत्तम स्वाद मिला तो स्वाद के लिए ही सारे श्रम करने लगे कोई तो बतावो उसमें अंत में तत्त्व क्या पाया? घाटी नीचे माटी। गले के नीचे उतरा फिर उसमें कोई स्वाद नहीं रहता। एक थोड़े सेकेंड के लिए इतना परिश्रम करना और अपनी सारी जिंदगी उलझन में डाल लेना, इसे कोई विवेक नहीं कहेगा। ऐसे ही कामविषयक वेदना की पूर्ति, अनापसनाप साधन बनाना, इसे भी विवेक नहीं कहा।
कामविडंबना से बचने का उपाय भेदविज्ञान- काम से बचने का उपाय विवेक ही है अर्थात् भेदविज्ञान है। जैसे कोई पुरुष यहाँ से विदेश चला गया, जब वह विदेश से स्वदेश लौटता है तो विदेश के किनारे पहुँचकर जब लोग पूछते हैं कि कहाँ जावोगे? तो वह उत्तर देगा कि हिंदुस्तान जायेंगे। हिंदुस्तान में जब प्रवेश करता है, मान लो किसी बंबई आदिक बंदरगाह पर आ गया तो वहाँ पूछे कोई कि कहाँ जावोगे? तो वह कहेगा उत्तर प्रदेश में जायेंगे। उत्तर प्रदेश के किनारे पर कोई पूछे कि आप कहाँ जावोगे तो वह कहेगा कि अमुक जिले जायेंगे। वहाँ बतावेगा कि अमुक गाँव जायेंगे, और उस गाँव में आकर अपने घर में जो विश्राम करने का कमरा है उसमें पहुँचकर विश्राम से बैठ जाता है। ऐसे ही समझिये कि मोह रागद्वेष से पीड़ित होकर यह जीव विदेश में पहुँच गया, स्वदेश तो अपना आत्माराम है और जितने परपदार्थों का संयोग है, उनकी उलझन है, यह सब तो विदेश यात्रा हो रही है। कोई पुरुष विदेश यात्रा से हटकर स्वदेश आना चाहे तो उससे पूछा जाय- भाई कहाँ जाना चाहते हो? कहाँ से हट रहा है यह? परभावों से हटकर अपने वैभव की ओर आ रहा है। लोकव्यवहार में वैभव धन समझा जाता है। वहाँ से हटकर इन जड़ पुद्गलों से हटकर चैतन्यस्वभाव में आ रहा है। परिजन, मित्रजन, अब यहाँ से भी हटकर अपने आपके चैतन्य में आ रहा है। यहाँ से और अंदर जाकर एक आत्मपरिणतियों में आ रहा है। वहाँ भी रागद्वेष मोह से हटकर एक ज्ञानभाव में आ रहा है, और वहाँ भी तर्क, वितर्क, विचार, क्षयोपशम वृत्तियों से हटकर एक शुद्ध ज्ञानज्योतिस्वरूप में आ रहा है, यही है विश्रामों में परमविश्राम। जैसे शरीर से थके हुए लोग सो कर आराम करते हैं, ऐसे ही विकल्पों से थके हुए प्राणी निर्विकल्प ज्ञानस्वभाव की उपासना में आराम लिया करते हैं।
सहज परमविश्राम में आत्मकल्याण- विश्राम और शांति का परमधाम अपने आपके ही अंदर अपने आपका स्वरूप है। उस स्वरूप में जो मग्न रहते हैं वे ही परमयोगीश्वर हैं और इस ही पारमार्थिक आंतरिक तपश्चरण के प्रसाद से अर्थात् इसी सहजआनंद की अनुभूति के प्रसाद से ये कर्म की बेड़ियाँ ध्वस्त होती हैं और अरहंत पद की प्राप्ति होती है। तीन लोक के पति अर्थात् स्वामी पूज्यनाथ हैं, यह परमात्मा अरहंतदेव, इनके स्वरूप का ध्यान करके हम अपने स्वभाव की ओर आयें और इस ब्रह्म का आचरण करके अपने परम ब्रह्मचर्य को संभालें। दस लक्षण के धर्मों में अंतिम धर्म ब्रह्मचर्य है। उसका प्रसाद निर्वाण है, वह पूर्ण ब्रह्मचर्य का स्थान है। ऐसा आत्मस्वरूप की आराधना का मुख्य लक्ष्य बनायें और अपने दुर्लभ नर-जीवन को सफल करें।