वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 608
From जैनकोष
कालकूटादहं मन्ये स्मरसंज्ञं महाविषम्।
स्यात्पूर्वं सप्रतीकारं नि:प्रतीकारमुत्तरम्।।
विश्व की कामपीड़ितता- यहकामनिर्भय होकर तीन लोक को पीड़ित कर रहा है। सैकड़ों उपाय करने पर भी यह कामव्यथा दूर नहीं होती है। पुराणों में यत्र तत्र देखने पढ़ने में आता है कि अमुक राजा अमुक कन्या के लिए इतनी विकट लड़ाई लड़ा, और उस कन्या को लेकर संतोष माना। और-और जगह जो कातर पुरुष हैं उन्होंने छल बल का ऐसा ऐसा यत्न किया। तो यह सब कामवासनाओं का ही तो परिणाम है। गृहस्थों ने इस ही काम के वश करने के लिए ब्रह्मचर्य अणुव्रत को अंगीकार किया है, वह भी एक पुरुषार्थ का रूप है। काम से आनुषंगिक सभी कामनाओं को ले लेना, इच्छावों पर विजय करना यह असाधारण पुरुषों का काम है, अन्यथा जीव तो इच्छावों के दास बनकर रहते हैं।
सत्य स्वरूप के योग का सत्य शरण- इच्छारहित रागद्वेषरहित मात्र चैतन्यस्वरूप का जिन्होंने अवलोकन किया है वे ही तो आत्मयोगी कहलाते हैं। बाहर सभी प्रकार के योग किये, इस जीव ने अनेक संयोग बनाये, लेकिन अपने आपमें अपने आप का योग मिलना यह अध्यात्मयोग नहीं किया, उसका फल यह हुआ कि बाहर ही बाहर अपनी बुद्धि लगाकर अपने को पीड़ित बनाया, दु:खी किया। लोक में शरण केवल अपने को आपका ध्यान है, इसीलिए भगवत्पूजा की जाती है। सिद्ध भगवंतों का स्मरण करके हम भी अपने आपके उस स्वरूप को निरखें और ऐसी भावना भरे, अनुभव करें कि जो सिद्ध का स्वरूप है वही स्वरूप मेरा है। केवल एक विकार प्रसंग का यह सब विपरीत परिणमन चल रहा है। तो स्वभाव की उपासना से वे सब विपरीत कुसंग दूर हटाये जा सकते हैं यह भावना भाने के लिए प्रभु की पूजा की जाती है। घर में, दुकान में, समाज में दिन रात रहकर जो कालिमा उत्पन्न कर ली उस कालिमा को धोने के लिए प्रभु के चरणों में जाया करते हैं। वहाँ भी यदि पर का संकल्प नहीं छोड़ा तो प्रभु का मिलान नहीं हो सकता। सर्व इच्छावों को भंग करके इच्छा रहित, रागद्वेषादिक रहित निर्मोह अपने स्वरूप का ध्यान किया जाय तो उससे जीव को शांति का मार्ग मिलता है। इसके लिए चाहिए सहज वैराग्य जिसके बल से सब गुण प्राप्त हो जाते हैं। वैराग्य के ही कारण उदारता प्रकट होती है। वैराग्य के कारण त्याग धर्म प्रकट होता है, वैराग्य के कारण अशांति दूर होती है।
सत्यस्वरूप की उपासना में समृद्धि अनायास- सहज वैराग्य प्राप्त हो यह माँगना चाहिए प्रभुदर्शन करके। हे नाथ ! मुझमें वह पराक्रम जगे जिस पराक्रम के द्वारा आपने कर्म शत्रु को भस्म किया और उत्कृष्ट नि:शंक पूज्य परमात्मपद पाया, वह पद मुझे प्राप्त हो, यह भावना भरना चाहिए। उत्कृष्ट भावना होने पर साधारण बात तो अपने आप ही प्राप्त हो जाती है, उसकी माँग क्या करना? कोई पुरुष छायावान बड़े पेड़ के नीचे बैठा हुआ पेड़ से हाथ जोड़कर यों कहता हो कि हे वृक्षराज मुझे छाया दो, तो उसे देखकर आप शंका कर उठेंगे कि कहीं यह बावला तो नहीं बैठा है। छाया वाले वृक्ष के नीचे बैठा है तो छाया मिल ही रही है, अब उसकी माँग क्या करना? इसी प्रकार जो शुद्ध मन से प्रभुभक्ति में रत हो रहा है उसे सर्वसमृद्धि प्राप्त हो रही हैं। अब ऐसे उत्कृष्ट भाव के समय सांसारिक कुछ चीजों का क्या माँगना। वे तो स्वयमेव ही आकर प्राप्त होती हैं।
पुण्य पुरुषों की लोकसंपदा से परमोपेक्षा- जो पुण्यात्मा पुरुष हैं वे पुण्य संपदा को तृणवत् त्यागकर अपने योगध्यानसाधना में रहते हैं, उसके प्रताप से चारघातिया कर्म दूर हुए, अरहंतपद प्राप्त हुआ और पुण्य संपदा ने तब भी पीछा न छोड़ा, वहाँ यह पुण्यसंपदा नाना रचनाओं के रूप में समवशरण आदि के बहाने भगवान अरहंत के चरणों में सेवा करने वहाँ भी पहुँची, लेकिन भगवान उससे चलित नहीं हुए। गंधकुटी पर पहुँच गए वहाँ भी पुण्य संपदा ने रत्नजड़ित सिंहासन रच लिया, लेकिन उससे वे चार अंगुल ऊपर अंतरिक्ष विराजे हैं। ऊपर से अंतरिक्ष के रूप में तीन छत्र के बहाने पुण्य संपदा ने चाहा कि हम भगवान को छू लें लेकिन वह भी ऊपर ही लटकती रही। पुण्यसंपदा से इस आत्मा को शांति मिले ऐसा कभी संभव नहीं है। शांति तो विवेक की देन है।
निर्विकार अंतस्तत्त्व की उपासना में परम निष्काम प्रभु के दर्शन- मैं सबसे न्यारा, अपने आप समृद्ध प्रभु हूँ, कृतकृत्य हूँ। जगत के किसी भी अन्य पदार्थ में कुछ परिणमन करने को मुझे नहीं पड़ा है। किसी पर में मेरा कुछ कर्तव्य चलता ही नहीं। मैं सर्वत्र अकेला अपने भावों को ही बनाता रहता हूँ। किसी के प्रति द्वेष भाव जगे तो वहाँ भी हम उसका अनर्थ नहीं कर पाते, किंतु अपने आपमें व्यर्थ कषायभाव बनाते रहते हैं। इसी तरह किसी पर प्रसन्न हो जायें, किसी से मित्रता मानें तो वहाँ भी हम किसी को सुख नहीं दे सकते। किंतु हम एक अपने में कषायरूप परिणमन किया करते हैं। मेरा पर में कुछ करने को अटका ही नहीं है। मैं कृत-कृत्य हूँ। ऐसा जो अपने को पर से निर्लेप अनुभव करता है वह ज्ञानी कामवासनाओं से दूर रहकर आत्मा का ध्यान करके निर्वाणपद प्राप्त कर लेता है। यह इच्छा दो क्षण को भी तो टले, फिर देखो उस इच्छारहित स्थिति में प्रभु के स्वयं ही सहज दर्शन होते हैं।