वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 607
From जैनकोष
पीडयत्येव नि:शंको मनोभूर्भुवनत्रयम्।
प्रतीकारशतेनापि यस्य भंगो न भूतले।।
कामवशता से महती व्याबाधा- यह काम जिसका कि पराक्रम अखंड है यह अकेला ही चराचरस्वरूप जगत को अपनी शक्ति से खंडित कर रहा है अर्थात् एक अकेला ही यह काम जगत के इन अनंत असंख्याते जीवों को अपने मार्ग में चला रहा है अर्थात् स्वाभाविक सन्मार्ग से हटाकर कुपथ में चला रहा है। पशु, पक्षी, मनुष्य सभी जगह देखो तो ये जीव इंद्रिय के वश होकर निरंतर आकुलता पाते रहते हैं। संसार के प्रत्येक प्राणी शांति चाहते हैं और आकुलता से दूर होना चाहते हैं। और, यावन्मात्र उनका प्रयत्न होता है। वह सब शांति प्राप्त करने के लिए है। लेकिन अनेक प्रयत्न करने पर भी शांति प्राप्त नहीं होती। इसका कारण यह है कि वे सब प्रयत्न उपायभूत है ही नहीं। लोग कुछ थोड़ीसी चतुराई पाकर इस लोक में अपनी चतुराई बताकर इस लोग में गर्व करते हैं, करें, लेकिन इस असार संसार में असार प्राणियों को असार चतुराई को दिखाकर यदि अपने मन का संतोष किया है तो वह मात्र मोह की विडंबना है। तत्त्व वहाँ कुछ भी नहीं है। इंद्रिय के विषयों के वशीभूत होकर यश प्रशंसा मन के विषय के वशीभूत होकर जो जो जीव प्रयत्न रखते हैं वे सब प्रयत्न तृष्णा को बढ़ाने वाले हैं। शांतिलाभ लेने की बात तो दूर ही रहो।
परमपुरुषार्थ का अनुरोध- जो इस जगत में अपने को निर्लेप और विविक्त रखना चाहते हैं, दुनिया जाने न जाने, माने न माने, एक अपना उपयोग अपने ज्ञानानंदस्वभावी अंत:परमात्मतत्त्व में लग गया है तो उस जीव ने सब कुछ प्राप्त कर लिया। विषयों से विरक्त होना और अपने ज्ञानस्वरूप में लगाव होना ये दो बातें बड़े ऊँचें भवितव्य से प्राप्त होती हैं अन्यथा ये कामनायें, नाना प्रकार की वांछायें जो जीव को आनंदस्वभाव से पतित करके एक वैषयिक सुख में लगा देती हैं बस ये विडंबनायें जैसी अब तक चली आयी चलती रहेंगी। नरभव पाकर दुर्लभ समागम पाकर ऐसी बुद्धि, ऐसे देव, शास्त्र, गुरु की संगति, शास्त्रों में जो गुरुजन मर्म लिख गए हैं उनके पढ़ने समझने की योग्यता, सब कुछ प्राप्त करके भी यदि स्वहित की ओर अपना उपयोग नहीं दिया, बाह्य-बाह्य विषय प्रसंगों में ही उपयोग फँसाया तो भला बतलावो कल्याण का अवसर फिर होगा और कहाँ? इन इच्छावों पर विजय करना एक सर्वोच्च पुरुषार्थ है।
कषायविजय में सर्वविजय- एक राजा ने अपने पराक्रम से सब राजावों को वश कर लिया और उस राजा को सभी पब्लिक के लोग सर्वजीत कहने लगे। सब कहें सर्वजीत, मगर माँ सर्वजीत न कहे। तो राजा अपनी माँ से बोला कि लोग मुझे सर्वजीत कहते हैं और तू क्यों नहीं कहती? तो माँ बोली- बेटा अभी तू सर्वजीत नहीं हुआ। बेटा बोला- अच्छा बतावो अभी कौनसा राजा जीतने को शेष रह गया है? माँ बोली- राजा तो तूने सब जीत लिये, लेकिन तेरे में जो यह अहंकार है, तेरे में जो ये अनेक इच्छायें जग रही हैं इनको तो तूने अभी नहीं जीता याने तूने अभी अपने आपको तो नहीं जीता। भले ही बाहर में कुछ प्रतिष्ठा हो गई। जब तू अपने को और जीत लेगा तो मैं भी तुझे सर्वजीत कहने लगूँगी। तो प्रयोजन यह है कि अपने आप पर वश चल सके, अपने आपका अपने आपमें समाधान कर सकें, विषयकषायों से अपने को विविक्त रख सकें तो यही है शांति का पुरुषार्थ।
आत्मशांति का सुगम पथ- कितना सीधे शब्दों में आचार्यों ने शांति का मार्ग दिखा दिया कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनकी एकता मोक्ष का मार्ग है, शांति का मार्ग है। अपने आपके आत्मा के संबंध में ऐसा निरखना है कि मैं सहज जिस स्वरूप हूँ बस वही मैं आत्मतत्त्व हूँ। किसी पर के संबंध से पर का ख्याल करके जो कुछ विकार उठते हैं वे विकार मैं नहीं हूँ, मैं निर्विकार ज्ञानानंदस्वरूप हूँ ऐसा श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है और ऐसा ही जानना अथवा ऐसे ही ज्ञान के लिए अन्य ज्ञान करना यह सब सम्यग्ज्ञान है और ऐसे ही ज्ञान में निरंतर रत रहना सम्यक्चारित्र है। इस उपाय से चलें तो शांति प्राप्त होती है। ये उपाय उन्हीं विजेता पुरुषों से बनते जो कामसंस्कार को विवेकबल से खंडित कर देते हैं।