वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 61
From जैनकोष
यज्जन्मनि सुखं मूढ ! यच्च दु:खं पुर: स्थितम्।
तयोर्दु:खमनंतं स्यात्तुलायां कल्प्यमानयो:।।61।।
सांसारिक सुख से अनंत गुना दु:ख― हे मूढ़पुरुष ! इस संसार में तेरे समक्ष जो कुछ सुख या दु:ख हैं उन दोनों को ज्ञान की तराजू में चढ़ाकर यदि तौलेगा तो सुख से दु:ख अनंत गुणा अधिक दिखेगा। इस श्लोक में यह बताया है कि संसार में सुख तो है तिलभर और दु:ख है पहाड़भर। अपनी-अपनी बात ही अपने को जल्दी समझ में आयेगी। दूसरे का सुख दु:ख समझ में नहीं आता। तब अपनी ही बात अपने पर घटाकर देख लो। किसी भी प्रसंग में किसी भी समय में सुख आपकी कल्पना में है तो उसके साथ उससे अनंतगुणा दु:ख भी लगा हुआ है। यह क्यों? इसलिये कि वे तो सारे दु:ख के ही काम हैं। इतने पर भी यह मूर्ख प्राणी मोहवश उसमें सुख की कल्पना कर डालता है तो यह उसके कल्पनागृह की बात है। वास्तव में सुख से अनंतगुणा दु:ख है। यह कहने के बजाय सर्वत्र दु:ख ही दु:ख है, यह कहा जाना चाहिये था लेकिन जिन्हें समझाना है उनकी कल्पना में तो वह सुख जंचता है, जो कि दु:खस्वरूप है, अत: उन्हें उनकी भाषा बोलकर ही तो समझाना पड़ता है। इस कारण यह कहा गया कि संसार में जितने सुख हैं उससे अनंतगुणा दु:ख है।
धन के कल्पित सुख में दु:खों का उपचय― अच्छा कोई सा भी प्रसंग ले लो किसमें सुख मानते हो? धन वैभव जोड़ने में सुख मानते हो तो धन वैभव जोड़ने की कल्पनावों से जो सुख मानते हो तो उस प्रसंग में उससे कई गुना अन्य बातों का दु:ख है। कहीं कोई विरुद्ध कानून न बन जाय, कहीं इस दबे हुए धन को कोई जान न ले, कहीं कोई चुरा न ले, कितनी ही प्रकार की कल्पनाएँ बनती हैं। उस संबंध में जो भी विकल्प बनते हैं उन विकल्पों को वचनों से कहा नहीं जा सकता। वे विकल्प अनुभव में तो हैं पर उनका वर्णन वचनों से किया जाना शक्य नहीं है। सारा संसार दु:खपूर्ण है। संसार की प्रत्येक परिस्थिति दु:खपूर्ण है।
वांछावों में ही सुख दु:ख की कल्पना― किसी को 104 डिग्री बुखार चढ़ा था और अब रह गया 102 डिग्री, अब उससे पूछा जाय कि कहो भाई कैसी तबीयत है? तो वह तो यही उत्तर देता है कि अब तो तबीयत अच्छी है। अरे अभी कहाँ अच्छी है, अभी तो तीन डिग्री बुखार चढ़ा हुआ है लेकिन बड़ा दु:ख जो अभी निकट में भोगा था उसके मुकाबले में कुछ कम है, अतएव उसे सुख में ले लिया है। ऐसे ही वांछायें ही विपदा है अब इच्छायें अनेक हुआ करती हैं। बस उन्हीं इच्छावों में से जब अति पराधीन बातों की इच्छा नहीं रही है, कुछ निकट प्राप्यवस्तु की इच्छा जगती है तो यह जीव उसमें सुख मान लेता है। इच्छावों में ही दु:ख मानता है और इच्छावों में सुख मानता है। जैसे उस बीमार पुरुष ने बुखार में ही खराब तबीयत बतायी थी और बुखार में ही अच्छी तबीयत बतायी, ऐसे ही इच्छावों का उपद्रव प्रत्येक संसारी जीव में पडा हुआ है, जिसको संज्ञा के नाम से कहते हैं। आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। जैनाचार्यों ने इन चार संज्ञावों को अतिज्वर बताया है। चार संज्ञावोंरूपी जड़ से पीड़ित हुए ये प्राणी विकल हो रहे हैं।
मूढ़ता― हे मूढ़ प्राणी ! यहाँ मूढ़ से संबोधन किया है। मूढ़ शब्द सुनकर बुरा सा लगता होगा। यदि आपको कोई कह दें कि आप बड़े मूढ़ हो तो आप बुरा मान जायेंगे और मूढ़ का ही पर्यायवाची शब्द है मोही। आप बहुत मोही हैं इस बात को सुनकर आप उतना बुरा न मानोगे जितना कि मूढ़ शब्द सुनकर बुरा मानोगे। बल्कि कभी-कभी तो मोही शब्द सुनकर आप हर्ष मानेंगे, जैसे कोई कहे कि आपको तो अपनी नाती से बड़ी मुहब्बत है तो इसको सुनकर आप खुश हो जाते हैं। अरे मूल में कहा तो गया मूढ़ ही। व्यक्त शब्दों में कहा यह गया कि तुम्हें अपनी नाती से बड़ा मोह है, तो इस बात को सुनकर आप अपनी प्रशंसा मान लेते हैं और यदि कहा जाय कि बाबा जी आप तो बड़े मूढ़ हैं तो इस बात को सुनकर आप दु:ख मानेंगे। पर मूढ़ का अर्थ है परवस्तु में व्यामोह होना। जिसे परवस्तु में व्यामोह है उस पुरुष का नाम मूढ़ है।
सुख की अरम्यता― देखो इस संसार की किसी भी वस्तु में मग्न मत हो तो वह सुख नहीं है, दु:ख है। इन सारे दु:खपटलों को भेदकर, बिखराकर अंत: बसे हुए आत्मीय सहज परमानंदमय इस स्वरूप पर नजर डालो, यही है वास्तविक सुख। इससे बाहर कहीं विश्वास मत करो। यह मेरा है, यह पराया है, ऐसी मिथ्या श्रद्धा मत करो। यह भी पराया है, यह भी पराया है। जो कुछ मिला है यह भी पर है। श्रद्धा सही रक्खो। अपना भविष्य अपने आप पर निर्भर है। हम जिस ओर मुख करेंगे उस ओर वैसी ही बात हम पर गुजरेगी। एक निर्णय कर लो, सब कुछ क्लेश है। बड़े क्लेश के सामने छोटे क्लेश से सुख मान लेना यह तो कल्पना की बात है, पर मूल से स्वरूप को देखो तो सब कुछ कल्पनायें हैं।
खाने का उपद्रव― भैया ! देखो गजब की बात खाने पीने को मौज माना जाता है और यह स्वाद किस जगह से आता है? यह कुछ पकड़ में बात नहीं आती। जब खाते हैं तो सारी जीभ से तो स्वाद आता नहीं, यह जीभ करीब एक बेथा की होगी लेकिन अन्यत्र इस सारी जीभ पर कोर्इ चीज रख दो तो स्वाद नहीं आता और एक जरासी नोक है वह जहाँ छू जाय, बस सो ही गड़बड़ पैदा करती है। यह स्वाद कहाँ से आ जाता है, किस ढंग से आता है तो खाना ही दु:ख है उसका सुख क्या मानें? न जाने कब कैसा शरीर मिले, न जाने कब कैसा खाने को मिलें? नरक शरीर मिले तो भूख तो लगती है सबसे अधिक और खाने को दाना भी नहीं मिलता। इस खाने का सुख मानने से खाने के निदानभूत विधि देह मिलती रहती है। खाना भी उपद्रव है। आहर से रहित हो जाय यह बस इसमें ही आनंद है आहार में आनंद नहीं है।
संबोधन― इन मन को बहुत समझाना पड़ेगा। यों ही आराम से धर्म न मिल जायेगा। धर्म तो आराम से ही मिलेगा, पर संसारी जीवों ने जिस काम में आराम समझ रक्खा है उस काम में सुख न मिलेगा। मन का संयमन करो, इंद्रियों का दमन करो, जो बात इस आत्मा के हित के लिये होती हो उस पर दृष्टि दो। हे प्रियतम ! अपने आप पर दया करके श्रद्धा सही बना लो। श्रद्धा निर्मल होनी चाहिये। अंतस्तत्त्व का रुचिया ज्ञानी संत अपने आपके संबंध में यों निरख रहा है कि जो मैं ज्ञान कर रहा हूँ। जो एक ज्ञानरूप बन रहा है वह एक जाननस्वरूप है, ऐसा यह भावात्मक मैं चेतन केवल एक प्रतिभासस्वरूप हूँ, इसमें अन्य कुछ भी दंदफंद नहीं हैं। न इनमें किसी परवस्तु का लेप है। व्यवहार दृष्टि से लेप है, किंतु वह निमित्तनैमित्तिक बंधनरूप है, न कि मेरे स्वरूप से किसी वस्तु का स्वरूप लिया गया है। मैं सदैव अपने स्वरूपमात्र हूँ, ऐसे निज विचार से इस ज्ञानी के अंतस्तत्त्व में रुचि दृढ़ हुई है। इसके दर्शन में आनंद है। इसके सिवाय अन्य कुछ विकल्प में आनंद नहीं है।
प्रत्येक सांसारिक स्थिति में दु:ख की कल्पना― हे भाई ! तू संसार के सुखों को तौलकर देख। जिनके संतान नहीं है वे इस बात में दु:खी होते कि मेरे संतान नहीं है, मेरा घर सूना है, घर में दीपक कौन जलायेगा और जिनके संतान हैं वे संतान के कारण दु:खी रहते हैं। दिन भर में पचासों बार उन संतानों पर झुँझलाते हैं। कभी-कभी तो झुंझलाहट प्रकट हो जाती है और कभी दिल मसोसकर रह जाते हैं, पर पचासों बार जरा-जरासी बातों में उन संतानों पर झुँझलाते हैं। और न भी कुछ हो तो राग की वासना से यों ही क्षुब्ध हुआ करते हैं। सर्वत्र दु:खी होकर यह जीव बरबाद हो रहा है। संसार में कौनसा सुख है जो सुख कहलाये? उसके साथ अनंतगुणा दु:ख भी लगा हुआ है। जैसे कोई साधारणसी मोटरगाड़ी होती है तो उससे कभी बड़ा सुख मानते हैं, सीट पर बैठे हैं। पों-पों करते चले जा रहे हैं और कहीं रास्ते में बिगड़ गई तो सोचते हैं ओह ! इसमें तो बड़ा जंजाल है, बड़ा दु:ख है। ऐसी बातें अनेक बार होती हैं। यों ही यह बिगड़ी हुई गाड़ी है संसारी जीव की। कुछ थोड़ीसी चल उठी, सुख मान लिया, और पचासों बार बिगड़ते हैं, उसमें क्लेश मानते हैं।
आंतरिक आधियाँ― खूब विचार लो, संसार की किस परिस्थिति में सुख है? कुछ भी आराम के लिये साधन बनाए जावें, कुछ भी सुखपूर्वक रहने की स्थिति बनाई जाये इसके साथ में ही कितना दु:ख लगा हुआ है, लोगों को दिखता है ऐसा कि फलाने साहब का कमरा बैठक बड़ा सजा धजा है। नये-नये तरह की कुर्सियाँ पड़ी हैं, नये-नये प्रकार के टेबल हैं, अच्छे-अच्छे चित्रों की सजावट है, ये बड़े सुख से रहते होंगे। अरे वह पुरुष कितना दु:ख भोगकर, कितने विकल्प बनाकर, कितने कष्ट सहकर उस कमरे में बैठा है? चाहे गद्देदार कुर्सियों पर भी पड़ा हो, पर यह नहीं कहा जा सकता कि इसके चित्त में सुख है। वेदनाएँ वहाँ भी चल रही हैं। इस संसार में अगर सुख होता तो तीर्थंकर जैसे महापुरुष इसे क्यों त्यागते, क्यों संयम धारण करते? ये सारी चीजें मायामय हैं, त्यागने योग्य हैं। एक श्रद्धा तो सही बना लो और उस पर कुछ प्रयोग करो।
परोपकार में तन मन के प्रयोग का अनुरोध― शरीर पाया है तो लगने दो परोपकार में। दूसरों के उपकार में इस शरीर का भी कुछ नहीं बिगड़ता और बिगड़ जाये तो क्या हुआ, बिगड़ना तो है ही। हम अपने भावों में उज्ज्वलता बसायें, इस अवसर को पाकर अब न चूके। सब जीवों को सुख हो, शांति हो इस प्रकार का चिंतन करें। हमारा कोई न साथी है, न शत्रु है, जिन्हें यहाँ साथी और द्वेषी समझा जा रहा है। वे बेचारे अपने सुख के लिये, अपने कषायों की शांति के लिये अपने आपमें जैसा उन्होंने सुख मान रक्खा हो उस तरह के उनमें विकल्प पैदा होते हैं। तो कोई साथी अथवा द्वेषी कैसे होगा? जगत् में कोई किसी का साथी अथवा द्वेषी नहीं है। ज्ञानी गृहस्थ के चित्त में भी कितनी उदारता है कि युद्ध के समय व्यवहार में शत्रु का डटकर मुकाबला करते हुए भी अंतरंग में यह श्रद्धा बनी है कि कोई मेरा शत्रु नहीं है। यह मन पाया है तो इस मन को सब जीवों की भलाई के चिंतन में लगा दो, कोई भी हो, दूसरों के प्रति भला विचारने से उसका कुछ भी बिगड़ता नहीं है, किंतु मन खुश रहता है।
परोपकार में धन वचन के प्रयोग का अनुरोध― धन मिला हे तो परोपकार में इसे लगा दो। जैसे अपने घर में किसी भी प्रकार का खर्च आ जाये, उस खर्च के प्रति आप चिंता नहीं करते, यह तो हमें करना ही है ऐसा आप सोचते हैं, इस ही प्रकार कोई परोपकार का कार्य आये तो यह तो करना ही है, कर्तव्य है, इसमें भी कुछ बिगाड़ नहीं है। बल्कि धन पकड़े रहने से बिगाड़ है। यह वैभव तो पुण्योदय के कारण आता है और इस पुण्योदय का कारण है परिणामों की उदारता, निर्मलता, निर्मोहता ऐसे ही वचनों की बात देखिये। ये वचन परोपकार में लगते हैं तो लगावो, हितपरिमित मिष्ठ वचन बोलकर जगत् का उपकार करो। इसमें तेरा क्या बिगाड़ है? देख जीभ कितनी कोमल है, जितने भी शरीर के अंग हैं सभी से कोमल है, पर जब मिथ्या आशय होता है, हृदय में क्रूरता होती है तो इतनी कोमल जिह्वा जिससे कठोर वचन निकलते हैं। देखो भैया ! सुनो ज्यादा और बोलो कम। देखो कान तो दो मिले हैं और जीभ एक ही है, सो सुनने का डबल काम करो और सुनने से आधा काम बोलने का करो। जो कुछ मिला है यह सब परोपकार में लगे, अथवा अपने आपमें सदाचरण, सत् श्रद्धान् सद्ध्यान में लगता हो तो ठीक है।
सद्बुद्धि की अभीष्टता― इस संसार में सुख जिस-जिस बात में माना जाता है उससे अनंतगुणा दु:ख उस प्रसंग में है और यह तो सब लोगों को अपने आपके अनुभव में आया हुआ होगा। तब क्या करना? इस सुख का विश्वास न करें। इस संसार के समागमों में यह मेरा है, इस प्रकार का भाव न बनायें। यदि ऐसा भाव बन गया तो इसका घोर दु:ख खुद को ही सहना पड़ेगा। सबसे निर्मल केवल ज्ञानप्रकाशमात्र मैं हूँ ऐसी श्रद्धा बनावो। भगवान् से कुछ माँगों तो यह माँगों कि हे नाथ ! मेरे ऐसी सद्बुद्धि बनी रहे कि मेरा जो पारमार्थिक यथार्थ स्वरूप है उसको मैं पहिचानता रहूँ, इतनी सद्बुद्धि पैदा हो, इसके अतिरिक्त हम कुछ नहीं चाहते हैं, यही है चीज प्रभु से माँगने की। प्रभु हैं खुद ऐसे। जो जैसा होता है उससे उस बात की आशा की जा सकती है। यद्यपि यहाँ प्रभु से मिल जाये सद्बुद्धि सो ऐसी सीधी बात नहीं है, किंतु निज ज्ञान के भंडार प्रभुस्वरूप का चिंतन करने से अपने आपमें चूँकि यह भी सच्चे ज्ञान का भंडार है स्वरूप में अतएव स्वयं सद्बुद्धि प्रकट हो जाती है। यही अभिलाषा करो कि हे नाथ ! मुझमें ऐसी सद्बुद्धि हो कि मैं पर को पर और निज प्रतिभास स्वरूप को मानता रहूँ, ऐसी सद्बुद्धि उत्पन्न हो। यही सद्बुद्धि सब कुछ उपाय बना देगी। जिन उपायों से जीव को कल्याण प्राप्त होता है।