वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 62
From जैनकोष
भोगा भुजंगभोगाभा: सद्य: प्राणापहारिण:।
सेव्यमाना: प्रजायंते संसारे त्रिदशैरपि।।62।।
भोगों की अहिनकारिता पर सर्पफण का उदाहरण― इस संसार में भोग सर्प के फण के समान है क्योंकि इन भागों का सेवन करते हुए देवता लोग भी शीघ्र प्राणांत हो जाते हैं। देव भी भोगों में रमकर अपने व्यतीत होने वाले समय को नहीं जानते। वह सागरों का समय भोगों में ही रमकर व्यतीत हो जाता है। देवगति से जीव मरकर एकेंद्रिय में पैदा हो या पंचेंद्रिय में पैदा हो, अन्यत्र पैदा नहीं होता। दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय जीवों में विकलत्रयों में ये उत्पन्न नहीं होते। कितनी विलक्षण बात है? या तो वे भले मन वाले संज्ञीपंचेंद्रिय तिर्यंच या मनुष्य हों और या एकदम एकेंद्रिय में पैदा हों। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति में पैदा हो जायें। तो जो देव मिथ्यादृष्टि हैं, देवियों में ही आसक्त हैं, वे भोगों में रमकर एकेंद्रिय भी हो जाते हैं। तब है ना सही बात कि ये भोग सर्प के समान हैं। सर्प सामने से निकल आये तो अभी भगदड़ मच जाए, सर्प की बात छोड़ दो, अभी किसी कोने से कोर्इ चुहिया निकल पड़े तो लोग डर जाते हैं। लोगों को शंका हो जाती कि अरे क्या है?
भोग परिहार की शिक्षा― यह सर्प कितना भयंकर है, उस सर्प के फण से भी अधिक भयंकर ये इंद्रिय विषयों के भोग हैं, इनकी ओर रंच भी दृष्टि न जाय और ज्ञान की आराधना में समय व्यतीत हो, ऐसी चर्या में ही लाभ है। इन भोगों के आकर्षण में आदि से अंत तक बरबादी ही बरबादी है, इस कारण हे मुमुक्षु पुरुषों ! जब देव तक भी भोगों में रमकर मरकर एकेंद्रिय तक हो जाते हैं तो मनुष्यों की तो सारी योनियाँ खुली हुई हैं। ये मरकर नारकादिक गतियों में नहीं जायेंगे क्या? भोगों में रमना, मरना। रम का उल्टा मर। भोगों में रमे और मरे। ये भोग इस जीव के लिये हितकारी नहीं हैं और इतनी ही बात नहीं कह रहे, सारे समागमों में यही विश्वास रक्खो कि ये मुझसे अत्यंत न्यारे हैं। यह बात हृदय में जमे बिना, श्रद्धा आये बिना कल्याण नहीं हो सकता।