वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 624
From जैनकोष
न पिशाचोरगा रोगा न दैत्यग्रहराक्षसा:।
पीडयंति तथा लोकं यथाऽयं मदनज्वर:।।
काम शल्य पीड़ितों के चित्त की अस्थिरता- जिनको कामवासना की शल्य बनी रहती है वे पुरुष कभी भी तो स्थिर नहीं रह पाते, न स्थिरता से बैठ सकते, न सो सकते, न चल सकते, न भोजन कर सकते। वे क्षणभर भी स्थिरता से नहीं रह सकते, उनका चित्त डांवाडोल बना रहता है। आत्मा का सर्वस्व उपयोग है, जब यह उपयोग बिगड़ गया, ज्ञान में विकार आ गया, राग द्वेष मोह की वेदना जग गयी फिर यह प्राणी विवश हो जाता है और उन्मत्तसा स्थिर होकर यत्र-तत्र डोलता है। उन्मत्त होने के कारण में प्रधान कारण है यह कामव्यथा। वैसे अन्य कारणों से भी उन्मत्तता आ जाती है। जब तृष्णा का वेग होता है, परिग्रह की तृष्णा बढ़ती है तो उसमें यह इतना अंध हो जाता है कि वहाँ भी इसका ज्ञान बुद्धि सब जाते रहते हैं और जब अपने मन के अनुकूल धन संचय नहीं हो पाता अथवा कोई अधिक घाटा पड़ जाता है तो उस समय ऐसी वेदना अनुभव करता है कि उसका ज्ञान बुद्धि सब विकृत हो जाते हैं। इसी प्रकार मान कषाय में भी वेग आये और मान के अनुरूप बात न बने तो वहाँ भी ज्ञान विकृत हो जाता है और पागलपन की स्थिति आ जाती है। जितने भी कारण है पुरुष को उन्मत्त बनाने के, उन सब कारणों में प्रधान कारण है यह कामव्यथा। कामव्यथा से पीड़ित मनुष्य न पागल हो तब भी पागल हो जाता। फिर उसे न बैठने में, न सोने में कहीं भी स्थिरता नहीं रहती, वह निद्रा भी बराबर नहीं ले पाता, बराबर घबड़ाता रहता है, नींद उचट जाती है, न स्मरण करता है और जैसे कि ऊपर बताये गए काम के 10 वेग होते हैं उन वेगों में बह जाता है। आखिर कामी पुरुष की अंत में दुर्गति ही होती है।
ज्ञान की सुस्थिति में समृद्धि- मनुष्य का भला अथवा मनुष्य को शांति एक शुद्ध ज्ञान बनाये रहने में प्राप्त होती है। इसके सिवाय जीव का और कुछ धन नहीं है। ज्ञान बिगड़ा तो सब बिगड़ा। जो उन्मत्त पुरुष होते हैं, घर के बड़े रईस लड़के हैं और किसी कारण उन्मत्तता आ गयी तो सब लोग कितना भी यत्न करते हैं उसको सुखी करने के लिए, पर वह सुखी कैसे हो? जब ज्ञान विकृत हो गया तो सुख का कोर्इ साधन नहीं रहा। विकार हो गया। पागल पुरुष का जीवन कोई जीवन है क्या? जो कोशिश यह होनी चाहिए सर्वत्र की हमारा ज्ञान विवेकपूर्ण बना रहे, विषय और कषायों में चित्त न उलझने को ही विवेक का प्रवर्तन कहते हैं। कैसी भी स्थितियाँ आयें अपने आपमें क्रोध न जगने दें, ऐसा ज्ञान बनायें तो उस घटना पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। कैसी भी प्रशंसा मिले, ऊँची स्थिति बने, वैभव मिले लेकिन मान न जगे तो उसका ज्ञान सत्पथ पर विहार करने लायक रहता है। जहाँ किसी प्रसंग में क्रोध जगा, मान जगा, माया लोभ चलने लगा बस वही उसका पतन होने लगता है।
संपदासमागम में विवेक- संसार में मान के लायक वस्तु है क्या? जो वैभव जिसे प्राप्त हुआ है उससे कई गुना वैभव अनेक जन्मों में स्वयं ने प्राप्त किया होगा। इसके तो मोह की ऐसी बात है कि जब जो वैभव मिलता है उसे ही अपना लेता है और उस ममत्व के कारण विश्राम से रह भी नहीं सकता और न धर्मपालन कर पाता है। और, कभी कोई पुरुष इसके विरुद्ध ऐसा भी चिंतन करता है कि हम दीन हैं, कुछ भी नहीं है हमारे पास।
एक दृष्टि से देखो तो जिसके पास जो भी द्रव्य है वह उसकी आवश्यकता से कई गुना अधिक है, एक निहारने भर की बात है। यदि आशंका हो कि हम कैसे समझें कि हमारे पास कई गुना अधिक है आवश्यकता से तो उसका प्रमाण यह है कि जैसे हम मनुष्य हैं अथवा सभी मनुष्य हैं अथवा जिस बिरादरी के हम हैं उसी बिरादरी के अन्य लोग भी हैं। जिस देवता को, जिस शासन को हम मानते हैं उस ही शासन को मानने वाले अन्य लोग भी हैं। जितनी पवित्रता हम कमा सकते हैं उतनी ही पवित्रता ये गरीब लोग भी जिनके पास अपने से 50 वाँ भाग ही वैभव होगा वे भी अपना जीवन चलाते हैं, प्रसन्न रहते हैं और धर्मपालन करते हैं। केवल एक लोकप्रतिष्ठा अथवा पर्यायबुद्धि के कारण ऐसा लगने लगता है कि हम कुछ भी नहीं हैं, हम तो दीन हैं, यों विवेक करके अपने आपमें निराकुलता बना लेना यह खास चीज है। जो प्रयोग करेगा, अपने आपमें घटित करेगा वही तो निराकुलता प्राप्त कर सकता है। धर्मात्मा परोपकारी पुरुष किसी भी स्थिति में हो, बाह्य वैभव की दृष्टि से उसका कहीं भी न अपमान है और न उसका अवनयन है। तो विवेक उसी को कहते हैं कि जिसमें अपना ज्ञान सही बने और जो जैनशासन ने उपदेश किया है उसका हम पूरा लाभ उठायें।
सम्यग्ज्ञान की हितकारिता व दुर्लभता- संसार में अत्यंत दुर्लभ चीज है सम्यग्ज्ञान। इससे और दुर्लभ कुछ वस्तु नहीं है। आत्मा अपने आप स्वयं ज्ञानमय है, यह स्वयं अपने ज्ञानस्वरूप को समझ ले, इतनी सी निज घर की बात, अपने पते की बात इस संसार में सबसे अधिक दुर्लभ है। बाह्य निमित्तनैमित्तिक भावों से ऐसी संपदायें समागम मिल जाना ये सब सुलभ हैं, पर दुर्लभ है तो एक यथार्थ ज्ञान बनना ही दुर्लभ है। क्योंकि एक इस जन्म की संगति से अथवा आवश्यक वस्तुवों से हमारा पूरा नहीं पड़ सकता। जो पदार्थ सत् है उसका कभी नाश न होगा। हम केवल इस भव की व्यवस्थावों में ही उलझे रहे और इस भव की पोजीशन सम्हालने में ही उलझे रहे तो इससे कुछ पूरा तो नहीं पड़ने का। न वर्तमान में शांति मिलती और न परलोक भी सुधरता। इसके विरुद्ध उपेक्षा भाव से रहने में अपने आपके निकट बसने में इस लोक में भी आनंद रहता है और आगे भव में भी आनंद रहेगा, धर्म का समागम मिलेगा। तो सबसे दुर्लभ चीज है सम्यग्ज्ञान। और, उसके निकट दुर्लभ चीज समझिये धर्म का वातावरण मिलना।
आत्मतर्पण की आवश्यकता- दिन रात में कोई आध पौन घंटा धर्म की बात सुनने को मिले, चर्चा करने को मिले और धर्मरुचिया पुरुषों का यथा समय संग मिलता रहे, यह भी बड़ी दुर्लभ चीज है? केवल पुद्गल के ढेर से ही, वैभव से ही इस आत्मा को क्या मिलेगा, शांति संतोष। इसको तो ज्ञान की खुराक चाहिए। शरीर को तो चाहिए भोजन की खुराक जिससे शरीर स्वस्थ रहे और आत्मा को चाहिए ज्ञान की खुराक जिससे आत्मा स्वस्थ रहे। हम अस्वस्थ और उदि्वग्न रहते हैं, इसका कारण यह है कि हम अपनी खुराक पर दृष्टि नहीं देते हैं। जब कभी भी आप केवल अपने आपको आप ही शरण जानकर अपने आपको केवल आप ही जिम्मेदार मानकर, आपके आप ही स्वामी हैं ऐसा मानकर पर से चित्त हटाकर इस शरीर से भी न्यारा मैं ज्ञानमात्र हूँ ऐसा अनेक बार चिंतन करें और इस झुकाव के साथ जैसे मैं शरीर से भी और भीतर हम कहीं अपनी दृष्टि लिए जा रहे हैं ऐसी प्रकृति से अपने आपको विचारें।
विशुद्ध अवलोकन- भैया ! निज को तो यों निरखें मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ, मेरा कार्य केवल जाननमात्र रहना है व व्यक्तरूप में सर्वत्र निरखें तो यह निरखें कि सब कार्यों के प्रसंग में भी मैंने केवल ज्ञान का परिणमन बनाया, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ कार्य नहीं किया। मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान का परिणमन होना यह मेरा कार्य है। और ज्ञान का परिणमन जिस पद्धति से होता है उस पद्धति से सुख दु:ख अथवा आनंद भोगना यह मेरा अनुभवन है, इसके अतिरिक्त न कहीं संपदा है, न कहीं मेरा सत्त्व है। मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ। इस प्रकार ज्ञानमात्र निजतत्त्व की बारबार भावना बने तो परमविश्राम होने के कारण अपूर्व विलक्षण आनंद जगता है। यही आनंद विविक्त साधुसंतों के निरंतर रहा करता है जिससे वे अकेले रहकर भी निर्दोष व प्रसन्न रहा करते हैं। अहो, कहाँ तो आत्मा का इतना विलक्षण स्वकीय आनंद और कहाँ कर्मप्रेरणा से अशुचि शरीर में स्नेह जगाकर कामवासना की व्यथा बढ़ाने जैसी दुर्दशा? जो कामपीड़ित जन हैं उनका चित्त कहाँ स्थिर होगा और उनको आत्मा के सुध का भी अवसर कहाँ मिल सकेगा?
धर्म के अवलंबन से समृद्धि का लाभ- इस ग्रंथ में आत्मध्यान की बात कही जा रही है। उस ध्यान का पात्र वही पुरुष होता है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप अंग का पालन करता है। ध्यान के ये तीन अंग हैं। मोक्षमार्ग भी इन तीनों की एकता है। आत्मशांति का भी यही एक उपाय है। धर्म की ओर से शंकित चित्त जब तक रहता है तब तक उसकी यह दशा है कि न यहाँ का रहा, न वहाँ का रहा। जो केवल अपने स्वभाव पर दृढ़ निर्णय रखता है और धर्मपालन से ही आत्मा का उद्धार है, अपने आपके उस शुद्ध ज्ञानस्वरूप निहारने के धर्मपालन में ही आत्मा का सत्य उद्धार है, ऐसा जिनका दृढ़ निर्णय है उनके पुण्य का बंध अनायास होती ही है, जैसे कि खेती करने वाले किसानों को भूस का ढेर अनायास ही प्राप्त होता है। किसान भूसा पैदा करने के उद्देश्य से खेती नहीं करता, ऐसे ही जो धर्म के रुचिया हैं उनके विशिष्ट पुण्य का बंध तो स्वयमेव होता है। धन वैभव का मिलना हाथ पैर चलाने या कोई दिमागी कला खेलने का फल नहीं है। धर्म की रुचि होना इससे बढ़कर और कुछ आत्मा का हित नहीं, वैभव नहीं। उसी के प्रताप से इसका विवेक ज्ञान सब जागृत रहता है।