वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 631
From जैनकोष
प्रकुप्यति नर: कामी बहुलं ब्रह्मचारिणे।
जनाय जाग्रते चौरो रजन्यां संचरन्निव।।
कामी पुरुषों का निष्काम पुरुषों पर कोप- कामी मनुष्य ब्रह्मचारी पुरुषों के लिए क्रोध करते रहते हैं। जैसे कभी किसी कषायी पुरुष को साधु के दर्शन हो जायें तो कषायी साधु को कोसता है कि यह साधु कहाँ से आ गया, आज तो शिकार मुझे न मिलेगा। जैसे रात्रि को चारी करने वाले लोगों को जगने वाले लोगों पर क्रोध आता है, ऐसे ही कामी पुरुषों को ब्रह्मचारी पुरुषों पर क्रोध आता है, यह एक स्वाभाविक नियम है। जिसकी जैसी संगति है वह उसमें वैसे ही रमना चाहता है। संतजन संतों में ही रमते हैं, कामी पुरुष कामीजनों में ही रमते हैं। तो जैसे संतों को कामी अधम पुरुष नहीं सुहाते इसी प्रकार अधम पुरुष को संत पुरुष भी नहीं सुहाते। पवित्र परिणाम रखने से आत्मा में एक ठोस लाभ पहुँचता है। वह बहुत उत्कृष्ट पद में ले जाता है। और नीच परिणाम जीव को निम्नपद में ले जाता है। यह बहुत बड़ी विपत्ति है।
प्रारंभ से ही संभाल की आवश्यकता- यदि कोर्इ प्रारंभ से ही अपने परिणामों के संभाल का यत्न बनाये रहे तो सावधानी रहती है, अन्यथा संभाल कठिन है। जैसे वर्षाकाल में कहीं रिपट वाली जगह पर थोड़ा भी रिपटे तो पूरा रिपट जाते हैं और शुरू से ही धीरे-धीरे संभलकर पग रखें, लंबी डग न रखें तो बचकर निकल जाते हैं। ऐसी ही सोहबत की बात है, इन परिणामों की बात है। खोटे परिणाम शुरू में हों और तभी अपनी संभाल कर लें तो संभल जाते हैं और प्रारंभ में ही नियंत्रण न रख सके तो फिर पापों की ओर ही नि:शंक प्रवृत्ति हो जाती है। और, पापों में नि:शंक प्रवृत्ति होने का ही नाम व्यसन है।
प्रारंभिक असावधानी से व्यसन की विपदा- पाप 5 होते हैं- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह। हिंसा की प्रकृति नहीं है, चाहते नहीं है और परिस्थितिवश कोई हिंसा करनी ही पड़ी ऐसा मनुष्य हिंसापाप तो करता है पर उसके हिंसा का व्यसन अभी नहीं लगा। और, जिसको हिंसा करने की प्रकृति बन गयी उसे कोई ग्लानि नहीं आती, उसे जरा भी रुकावट नहीं आती, क्योंकि चित्त में जीव हिंसा का व्यसन लग गया। उसी का नाम शिकार खेलने का व्यसन है। कोई पुरुष किसी समय किसी खास परिस्थिति में चित्त न चाहते हुए भी झूठ बोल गया तो उसने पाप तो किया, पर अभी झूठ बोलने का व्यसन नहीं बना। जब दो चार बार झूठ बोला जाय और झूठ बोलने में फिर उसे झूठ का व्यसन लग गया। इसी प्रकार कभी किसी बड़ी विकट परिस्थिति में कोई चोरी का काम कर ले तो उसने चोरी का पाप तो किया पर चोरी का व्यसन नहीं हुआ। जो चोरी करने का आदी बन जाय, चोरी करने में अपना भला माने, जैसे डाकू अथवा गुप्त अगुप्त चोर होते हैं तो वह चोरी का व्यसन कहलाता है। ऐसी ही कुशील की बात है। परस्त्रीसेवन व्यसन में शामिल है। कभी किसी परिस्थिति में कुशील बन गया तो वह पाप है, जब उसकी आदत बन जाय, उसमें नि:शंकता हो जाय तो वह कुशील व्यसन बन जाता है। तो व्यसन लगने पर फिर छुटकारा होना कठिन होता है। जैसे बीड़ी पीने वालों से कहा जाय कि बीड़ी पीना छोड़ दो, उन्हें बड़ा कठिन मालूम होता है और आरंभ में ही जब बीड़ी पीना शुरू किया है तब छोड़ने को कहा जाय तो जल्दी ही छोड़ देते हैं। किसी चीज का व्यसन बनने पर उससे छुटकारा होना कठिन है, तो जो कामासक्त पुरुष हैं उन्हें काम का व्यसन बन जाता है और फिर वे उसे छोड़ नहीं सकते।
वस्तुत: परपदार्थों का भोगना असंभव- संसारी प्राणियों की हालत तो प्राय: ऐसी ही है कि वे न परपदार्थों को भोग सकते हैं और न परपदार्थों को छोड़ सकते हैं। अध्यात्मदृष्टि से विचार किया जाय तो कोई भी जीव परपदार्थ को भोगता नहीं है जो भी भोगता है वह अपने कषाय और भावों को भोगता है। जैसे कोई रूपवान वस्तु है उसे देखकर खुश हो रहे हैं तो यही कहा जाता है कि इसने रूपवान वस्तु को भोगा, पर हुआ क्या कि वह परपदार्थ जहाँ का तहाँ ही रहा, यहाँ इसने अपना ज्ञान बिगाड़कर अपने आपमें कल्पनाएँ की, उसके अनुभवन का नाम ही भोगना है, परवस्तु को कोई नहीं भोगता है। आनंद भी किसी पर से नहीं आता। आनंदस्वरूप स्वयं हैं, पर किसी का निमित्त पाकर स्वयं आनंदरूप परिणम जाते हैं। गहरी दृष्टि से सोचा जाय तो भोजन करते हुए में उस भोजन से आनंद फूटकर नहीं निकलता। उस भोजन के विषय में जो हमारा ज्ञान बनता है उस ज्ञान का वह आनंद है। कोई भी किसी बाह्य वस्तु को नहीं भोग सकता है।
इच्छा के अभाव में सुख- जितने भी सुख होते हैं वे सब सुख इच्छा के अभाव से होते हैं। इच्छा नहीं रही किसी वस्तु के प्रति तो सुख हो गया। इच्छा के पूर्ण होने का नाम इच्छा की पूर्ति नहीं है, किंतु इच्छा के अभाव का नाम इच्छा की पूर्ति है। इच्छा के मिटने से ही इच्छा की पूर्ति होती है। बोरा तो गेहूंवों के भरते-भरते पूर्ण होता है पर इच्छा इच्छावों के मिटने से पूर्ण होती है। जैसे कहते हैं ना कि हमारी इच्छा पूर्ण हो गयी तो उसका अर्थ यह है कि अब उसके उस वस्तु के प्रति इच्छा नहीं रही। जितने भी सुख मिलते हैं वे सब इच्छा के मिटने से मिलते हैं। एक ही जगह नहीं, सभी कार्यों में आप देख लीजिए। किसी मित्र से मिलना है तो जब तक उससे मिलने का विकल्प है, मिलने की इच्छा है तब तक बेचैनी है और वह मित्र मिल गया तो अब उस मित्र से मिलता है यह इच्छा नहीं रही, बस इस इच्छा के न रहने का सुख मिला है, उसे मित्र से मिलने का सुख नहीं मिला है। किसी काम के करने की इच्छा हुई तो उस काम को करने से सुख न मिलेगा, उस काम को करने की अब इच्छा नहीं रही, इससे सुख मिलेगा। तो किसी भी काम से किसी भी वस्तु से सुख नहीं मिलता।
तत्त्ववेदी का प्रत्यय- जो यथार्थतत्त्व के वेत्ता है वे जानते हैं कि मैं यह ज्ञानस्वरूप हूँ, मेरा सर्वस्व मुझमें है, मैं आनंदस्वरूप हूँ, मेरा ही आनंद मुझमें प्रकट होता है, ऐसा जिसके दृढ़ निर्णय है वह बाह्यपदार्थों में आसक्त नहीं होता। तत्त्वश्रद्धान का यही तो फल है। समस्त वस्तुओं को स्वतंत्र-स्वतंत्र जान लेना बस यही तत्त्वज्ञान का फल है। द्रव्य 6 जाति के होते हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। दार्शनिक चर्चा में क्या बढ़ें, इस प्रकार की ये 6 जातियाँ बतायी हैं कि जिसमें कोर्इ दोष नहीं आता। अन्य प्रकार से बहुत से दार्शनिकों ने द्रव्य की संख्या बतायी, किंतु कोई द्रव्य किसी द्रव्य में मिलकर एक बन सकता था, कोई द्रव्य छूट गया, इस तरह से अटपट संख्या बनी, किंतु ये 6 जाति के पदार्थ में न तो कोई पदार्थ छूटा और न कोई किसी में मिलता जुलता है। जीव- जिसमें चेतना पायी जाय वे सब जीव हैं। जीव कहने से सब जीव आ गए। और, जीव में जीव को छोड़कर शेष 5 द्रव्य नहीं आये। पुद्गल- जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श हों वे सब पुद्गल हैं, पुद्गल में समस्त पुद्गल आ गए। पुद्गल के सिवाय अन्य कोर्इ द्रव्य नहीं आया, ऐसी ही सब द्रव्यों की व्यवस्था है।
स्वरूपबाह्य के संबंध की कल्पना में क्लेश- ये समस्त पदार्थ स्वयं सत् हैं और अपने आप निरंतर परिणमते रहते हैं। इसके आगे और कुछ नहीं होता। न परिवार का संयोग है, न परिवार से सुख आता है, न शत्रु से दु:ख आता है। आज हमने जिसको शत्रु माना उसके प्रति अपनी मान्यता से दु:खी हो रहे हैं। किसी को अपना शत्रु न मानें, नम्र बनकर रहें, मिष्ट वचन बोलकर रहें, हम कुछ त्याग और उदारता के साथ रहे तो मेरा कोई शत्रु ही नहीं है। हमारा मन साफ है, किसी को शत्रु नहीं मान रहे, चाहे कोई पुरुष मुझ पर कितना ही उपसर्ग करे पर मैं दूसरों को शत्रु मानूँ तो उससे दु:ख कई गुना हो जाता है। तो शत्रुता मानने से दु:ख बढ़ता है, शत्रु से दु:ख नहीं बढ़ता।
जीव का आंतरिक शत्रु- एक राजा था तो जंगल में एक साधु के पास बैठ गया। कुछ उपदेश सुनने लगा। वह जा रहा था किसी शत्रु से लड़ने के लिए सेना को सजाकर। सेना कुछ दूर खड़ी कर दी और आप साधु के पास बैठ गया। कुछ चर्चा होने के बाद शत्रु की सेना कुछ निकट आने को हुई, उसे कुछ शब्द सुनाई दिये, सो राजा को कुछ क्रोध उत्पन्न हुआ, सो पहले तो राजा कुछ ढीलाढाला बैठा था, अब कुछ और कड़ाई करके बैठ गया और तलवार भी हाथ में ले लिया। कुछ और भी शब्द सुन पड़े तो तलवार भी तान ली। राजा की ऐसी हालत देखकर साधु बोला- राजन् ! तुम यह क्या कर रहे हो? तो राजा बोला- महाराज ! शत्रु ज्यों ज्यों निकट आता जा रहा है त्यों त्यों मेरे अंदर क्रोध का वेग बढ़ता जा रहा है, तो साधु बोला- तुम बड़ा अच्छा कर रहे हो, शत्रु को तो बिल्कुल विध्वंस कर देना चाहिए और ज्यों ज्यों शत्रु निकट आये त्यों त्यों क्रोध बढ़ना स्वाभाविक है। मगर राजन् ! एक शत्रु तो तुम्हारे बिल्कुल निकट आ गया, तुममें ही बसा हुआ है, उस पर क्रोध करो, उसे निकालो। राजा बोला- महाराज वह कौनसा शत्रु है? साधु बोला- तुम्हारे चित्त में जो यह बात बैठी है कि अमुक मेरा शत्रु है यही भाव तेरा वास्तविक शत्रु है तो उस बात को निकाल दो। तुम्हारा अन्य कोई शत्रु नहीं। यह बात राजा की समझ में आ गयी, वह शुद्ध होकर ध्यान में बैठ गया। अब वही सारी शत्रु सेना जब वहाँ से गुजरती है तो राजा को शांतमुद्रा में ध्यान करता हुआ देखकर वे सब अति प्रसन्न हुए और उसके चरणों में नमस्कार करने लगे। तो जब तक हम किसी दूसरे जीव को अपना विरोधी मानेंगे, अपना बैरी मानेंगे तब तक हममें चैन नहीं है। चाहे कुछ भी हो जाय, पर किसी दूसरे जीव को हम अपना विरोधी न मानें।
स्वरूपनिर्णय में उलझनों की परिसमाप्ति- भैया ! जीव का जो स्वरूप है उस पर दृष्टि दें, सब जीवों को यों निरखें कि सभी अपने कर्मों के अधीन होकर जैसी उनमें कषाय जगती है उस योग्यता माफिक वे अपनी परिणति करते हैं। मेरा कोई दुश्मन नहीं है। इसी प्रकार मेरा कोई मित्र नहीं है। हमारे ज्ञान की सावधानी होगी तो हम ही अपने मित्र हैं और हमारे ज्ञान की असावधानी होगी तो हम ही अपने शत्रु बन जाते हैं। बाहर में कोई मेरा मित्र शत्रु नहीं है, ऐसा निर्णय जिन ज्ञानी संतों को होता है वे पुरुष परवस्तुवों से सहज उपेक्षाभाव रखा करते हैं और ऐसे ही पुरुष कामवासना जैसे गंदे आशय से विरक्त रहते हैं और निष्काम शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की उपासना करके अपने आत्मविकास की उन्नति करते हैं, ऐसे भी पुरुषों से कामी पुरुष घृणा करते हैं, उन पर क्रोध करते हैं। यह काम संसार में लोगों की ऐसी बुद्धि बिगाड़ देता है कि वे ऐसे ज्ञानी पुरुषों को भी घृणास्पद की दृष्टि से देखते हैं। हम ज्ञानार्जन से, सत्संगति से, स्वाध्याय से, परोपकार से और गृहस्थ हैं तो धनार्जन से कर्तव्य निभाकर एक शुद्ध मोक्षमार्ग की दृष्टि बनायें और यह निर्णय बनायें कि हमारा जीवन तो धर्मपालन के लिए है, बाकी तो जीवन निर्वाह के लिए करना पड़ रहा है, ऐसा शुद्ध लक्ष्य होने पर नियम से अपना उद्धार होगा।