वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 630
From जैनकोष
उंमूलयत्यविश्रांतं पूज्यं श्रीधर्मपादम्।
मनोभवमहादंती मनुष्याणां निरंकुश:।।
मनोज महादंती द्वारा धर्मवृक्ष का भ्रंश- बहुत बहुत ज्ञान करके और बहुत साधना के द्वारा पूज्यश्री धर्मवृक्ष को भी हरा भरा बनाया हो किसी ने, संयम वृक्ष को निर्दोष पालने का यत्न किया हो, चारित्र भी बढ़ाया हो, लेकिन जिस किसी समय काम की कुबुद्धि उत्पन्न होती है तो यह कामरूपी महान् हस्ती निरंकुश होकर ऐसे धर्मवृक्ष को भी उखाड़ देता है। अनेक ऋषि ऐसे भी हुए हैं जिनका ऐसा उत्कृष्ट तपश्चरण था कि तपश्चरण के प्रभाव से श्रुतज्ञान के 11 अंग 9 पूर्व की सिद्धि हो गयी, श्रुतज्ञान मायने आगम शास्त्र। शास्त्रों का विस्तार मूल में 10 अंग और कुछ अंग बाह्यों में विस्तृत है। तो 12 अंगों में से 11 अंग और 9 पूर्व तक का अध्ययन अभव्य जीव के भी हो सकता है। कोर्इ अभव्य जीव मुनि हो गया, तपश्चरण ठीक चल रहा तो 11 अंग 9 पूर्व तक का ज्ञान उसके भी हो सकता है। कोई भव्य जीव इतना ज्ञान साधु अवस्था में कर चुके तब 11 अंग 9 पूर्व की सिद्धि करने के बाद जब आत्मा की विशुद्धि बढ़ती है तो उस समय 10 वें अंग की सिद्धि होती है। 10 वें पूर्व का नाम है विद्यानुवादपूर्व। उस समय बहुत से देवी देवता अपना सुंदररूप रखकर ऋषि के पास आते हैं और हाथ जोड़कर उनसे विनती करते हैं महाराज हमें आज्ञा दो, बहुत सुंदररूप सजाकर बहुत प्रेमपूर्वक ऋषि का अनुनय विनय करते हैं, उस समय यदि वह ऋषि विकार न करे और अपने शुद्ध लक्ष्य पर कायम रहे तो इसके बाद उसे बाकी श्रुतज्ञान भी सिद्ध हो जाता है और वह निर्वाण का भी पात्र बन जाता है। लेकिन उन देवी देवतावों के अनुनय विनय को सुनकर उसके कोई इच्छा जग जाय तो उसका धर्मवृक्ष उखड़ जाता है और यदि कामविकार जग जाय तब तो अत्यंत पतित हो जाता है तो बड़ी मेहनत से संयमवृक्ष को हरा भरा किया हो लेकिन यह काम संस्कार उस वृक्ष को मूल से उखाड़ देता है।
ब्रह्मचर्य की महिमा- ब्रह्मचर्य की बड़ी अद्भुत महिमा है, यह सबको लाभदायक है। गृहस्थी को भी जब अधिक आयु हो गयी तो पति पत्नी दोनों को पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए। इससे मन की शुद्धि बढ़ती है। पर्व आदिक में ब्रह्मचर्य से रहें, यों भी अधिकाधिक ब्रह्मचर्य से रहें तो यों ब्रह्मचर्य से जीवन व्यतीत करने में बहुत शांति प्राप्त होती है, धैर्य जगता है, चित्त अस्थिर नहीं होता। किसी भी काम को सिद्ध करने के लिए बुद्धि भी चलती है। सेठ सुदर्शन की कथा बड़ी प्रसिद्ध है और स्त्रियों में तो सतियों की कथायें बहुत प्रसिद्ध हैं। सेठ सुदर्शन के रूप को देखकर एक रानी मुग्ध हुई। तो रानी ने किसी प्रकार धोखे से उसे बुलाया और बहुत बहुत बातें कहीं, पर वह विचलित न हुआ। और बोला कि मैं तो परस्त्री के लिए नपुंसक हूँ। अंत में रानी ने क्रुद्ध होकर उसको असदाचार का दोष लगाया और राजा ने उसे शूली का हुक्म दिया। जब शूली पर चढ़ाया गया तो उस समय देवों ने आकर उसकी रक्षा की और उसके बैठने का सिंहासन बना। ऐसे ही सतियों की घटनाओं में भी देवों ने सहायता की। सती सीता को अग्नि कुंड से बचाया, द्रोपदी का चीर बढ़ाया, और और भी सतियों का महान प्रभाव हुआ। वे अपने शील पर अडिग रही। तो जो अपने शील से अडिग रहता है, संकल्प जिनका दृढ़ रहता है उस दृढ़ संकल्प वाले जीव के कोई अद्भुत शक्ति प्रकट होती है जिससे चित्त अस्थिर नहीं होता, धीरता प्रकट होती है और किसी भी समस्या को सुलझाने में उनकी बुद्धि प्रबल रहती है।
ब्रह्मचर्य के प्रताप से सुगम सुखसमृद्धिलाभ- ब्रह्मचर्य ही वास्तविक सुख है, तप है, स्वाध्याय है, यश है। बड़े बड़े वीर पुरुष बड़ी बड़ी वीरता की बात कर लेते हैं किंतु एक काम के समक्ष अपने घुटने टेक देते है, और जो पुरुष अपने ब्रह्मचर्य व्रत को सही निभाता है अध्यात्मदृष्टि से वह बहुत बली मनुष्य है। गृहस्थी में पातिव्रत्यधर्म की बहुत बड़ी महिमा कही है। उसका मतलब ब्रह्मचर्य अणुव्रत से है। पुरुष भी अपनी पत्नी को छोड़कर अन्यत्र कहीं दृष्टि न दे स्वप्न में भी ऐसा जो ब्रह्मचर्य अणुव्रत है उसकी भी बड़ी अधिक महिमा है और फिर जो साधुसंत ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन करते हैं उनको आत्मतत्त्व का दर्शन, प्रभु से मिलन ये सब सुलभ होते हैं और शीघ्र होते रहते हैं।