वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 634
From जैनकोष
हरिहरपितामहाद्या बलिनोऽपि तथा स्मरेण विध्वस्ता:।
त्यक्तत्रपा यथैते स्वांकान्नारीं न मुंचंति।।
निर्विकार स्वरूप में औपाधिक विकार- जीव का स्वरूप केवल ज्ञानप्रकाशमात्र है। अपने आपमें अपने मात्र ही खुद निरखें कि जिसमें यह मैं हूँ ऐसा बोध हो रहा है, उस सत् में तत्त्व क्या है, उसका स्वरूप क्या है? तो वहाँ रूप न मिलेगा, न रस, न गंध और न स्पर्श मिलेगा, वह केवल ज्ञानप्रकाशमात्र है। यह आत्मा अमूर्त है, ज्ञानस्वरूप है। जिस ज्ञान से हम कुछ जाना करते हैं वही ज्ञान तो आत्मा है। इन ज्ञानपरिणमनों का आधारभूत जो एक ज्ञानशक्ति है उसका नाम आत्मा है। वह आत्मा विषयकषाय से रहित है, परवस्तुवों से निर्लेप है, अपने स्वरूप से है, पररूप से नहीं है। यह स्वयं आनंदस्वरूप है, पर अनादि से परउपाधि लगी रहने में कारण इसकी विकार अवस्था बन गयी है, और उस विकार में यह इतना बह गया है कि इसके नानारूप बन गए हैं। एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पंचेंद्रिय ऐसे जो नानारूप दिख रहे हैं ये भिन्न-भिन्न प्रकार में विकार हैं, और उनसे ये नाना प्रकार की अवस्थायें बन रही हैं।
साधकों का भी कामवश सत्पथ से विचलन- कभी योग ऐसा आता है कि कुछ विकार कम होते हैं। ज्ञानप्रकाश जगता है तो वह व्रत नियम भी ले लेता है, कल्याण के लिए ज्ञानार्जन भी करता है, संन्यास व्रत भी ले लेता है। वहाँ कर्मप्रेरणावश ये विकार सतायें, तो उन्हें भी तपश्चरण के सत्पथ से दूर कर देता है। जैसे कि लोक में मूढ़ पुरुष लौकिक जन अपनी स्त्री को गोद से बाहर नहीं करते ऐसा भी चारित्र जिनका है कि जिसमें स्त्री के निकट ही रहा करे और लोग भी ऐसे अनुयायी हैं कि उन्हें भगवान मानकर पूजते हैं- ये भगवान हैं और यह इनकी भगवती बैठी है। भगवान आत्मा निर्लेप पवित्र केवल ज्ञानानंदस्वरूप है। उसका किसी से कुछ प्रयोजन नहीं। स्त्री पुत्रादिक का होना तो गृहस्थी में संभव है पर कैसा मोह का प्रताप है कि स्त्री और पुरुष दोनों को भगवान और भगवती मानकर पूजते हैं। ये सब विकार के परिणाम है। बड़े-बड़े बलिष्टों को भी इस काम ने यों नष्ट किया, चारित्र भी उनका सुना जाता है। पुराणों में बताया कि तिलोत्तमा देवांगना ने जब पितामह ऋषि को डिगाना चाहा तो वह सामने नाची तो उस ओर वे देखते रहे, दूसरी ओर नाची तो उस ओर भी निरखने के लिए सिर मोड़ने का कष्ट क्यों करना पड़े यों दूसरा मुख बना दिया, तीसरा मुख पीछे बना दिया, फिर चौथा मुख बना दिया, आकाश में नृत्य करने लगी तो 5 वाँ मुख बना दिया। तो इसका निष्कर्ष यह जानना कि इस लोक में काम की व्यथा बहुत कठिन व्यथा है। इस कामवासना को जो जीतते हैं वे आत्मा के ध्यान के पात्र होते हैं।
निष्काम अंतस्तत्त्व के मिलन बिना शांति का अनवसर- इस लोक में आत्मा के ध्यान के अतिरिक्त अन्य कुछ शरण नहीं है। ये जगत के दृश्यमान पदार्थ जो हैं इनसे इस आत्मा का कुछ संबंध नहीं है। रही एक लौकिक प्रतिष्ठा और लौकिक इज्जत की बात, तो यह मायारूप है। किसी ने मुझे बड़ा कह दिया तो उससे मेरे आत्मा का क्या सुधार हो गया और किसी ने मुझे छोटा कह दिया तो उससे मेरे आत्मा का क्या बिगाड़ हो गया? लेकिन कुछ ऐसी मोह की प्रणाली है जीव में कि इस लोक में अपने आपको प्रतिष्ठित बनाने के लिए धन का बड़ा संचय करते हैं। क्या, जो है उससे गुजारा नहीं होता? पर मैं धनी कहलाऊँ इसके लिए धन का संचय करते हैं, तो ये विकार इस जीव को यों सताते हैं इनसे मोह नहीं छुटता और अपने आपकी दृष्टि नहीं जगती। जब तक अपने आपकी दृष्टि अपनी ओर न लगे तब तक शांति का कोई अवसर नहीं मिल सकता है।