वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 635
From जैनकोष
यदि प्राप्तं त्वया मूढ नृत्वं जन्ममोग्रसंक्रमात्।
तदा तत्रुकु येनेयं स्मरज्वाला विलीयते।।
नरजन्म के सुयोग में कामज्वाला मेटने का अवसर- हे प्राणी जरा विचार तो सही- जगत में और और जीव भी तो हैं। जो तेरा स्वरूप है सो उन जीवों का स्वरूप है कुछ अन्य तो नहीं है। स्वरूप तो एक भाँति है। जैसे ये भैंसा, बैल, घोड़ा आदि जीव नजर आते हैं, कितना बोझा लादे चले जा रहे हैं, हाँफते जा रहे हैं फिर भी उन पर कोड़े बरसते हैं। वे भी तो जीव अपने ही समान हैं। उन सब योनियों से निकलकर आज मनुष्य हुए हैं तो हमने धर्मयोग्य अवसर पाया है, बात समझ सकते, मन की बात बता सकते, दूसरों के मन की बात सुन सकते, समझ सकते। कितनी ऊँची स्थिति पायी है। संसार के अन्य जीवों का मुकाबला करके देखो तो मालूम पड़ेगा कि हमने बहुत दुर्लभ जन्म पाया है। अब जो भव-भव में व्यसनों का काम करते आये, विषय कषायों को ही लेते आये, उन ही में आसक्त रहे तो यह मनुष्य जन्म व्यर्थ समझिये, ऐसा काम करें जिससे विषयों से अरुचि बने, काम की ज्वाला नष्ट हो जाय।
विषयवेदना के अनर्थ- एक कथानक है कि कोई अंध पुरुष किसी नगर में जाना चाहता था। उस नगर के चारों ओर कोट था और उस कोट का मुख्य द्वार एक ओर था। नगर छोटा था, पर बड़े लोग उसमें रहते थे। वह इस चाह से जाना चाहता था कि इस नगर में पहुँचने पर मेरा जीवन अच्छा कट जायेगा। वह बेचारा अंधा था और साथ ही सिर में खाज भी थी। तो उसने सोचा कि इस कोट पर हाथ रखकर उसके सहारे चलते जायेंगे और जहाँ दरवाजा मिलेगा वहाँ से प्रवेश करके चले जायेंगे। वह चलता गया, बहुत देर के बाद जहाँ दरवाजा मिला वही अपने हाथों से अपने सिर की खाज खुजाने लगा और पैरों से चलना बंद न किया। दरवाजा निकल गया, फिर चलता गया, फिर दरवाजा मिलने के समय अपने हाथों से अपने सिर की खाज खुजाने लगा, फिर दरवाजा निकल गया। ऐसे ही समझिये- चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाते-लगाते आज मनुष्य जन्म पाया है, इसको अगर विषयकषायों की खाज खुजाने में ही अपना जीवन खो दिया तो फिर हित का मार्ग ढूंढ़े न मिलेगा। राग, द्वेष, मोह की, विषय कषायों की तरंग न उठे तो समीचीनता जगती है। उससे ही ऐसा अनुपम आनंद जगता है कि जहाँ निराकुलता, शांति विश्राम प्राप्त होती है। पर की ओर दृष्टि है तो विषाद होता है, कलह होता है, रागद्वेष बढ़ते हैं, विकल्प बढ़ते हैं। तो समझिये कि हम कुपथ पर बढ़ रहे हैं।
भेदविज्ञान से समस्याओं की सुलझन- भैया ! अपना समय दिन-रात का 24 घंटे का है, चौबीसों घंटा परपदार्थों की चिंता लादे रहने से तो सिद्धि नहीं होती। कुछ अपने दो चार मिनट तो निर्विकल्प, चिंता रहित, विश्रामसहित होकर तो बितायें, वहाँ ही पता पड़ेगा कि वास्तविक दुनिया क्या है? जो आँखों दिखता है यह तो अँधेरखाता है इंद्रजाल, है, ज्ञानधर्मरूप तृतीय नेत्र से अपने आपको जो निरखता है उसके ही सब कुछ समृद्धि है, यही वैभव है, यही आनंद है और यही निर्वाण का स्वरूप है। ऐसा आनंद जगेगा कि जिस आनंद के प्रताप से भव-भव के संचित कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। कर्तव्य है भेदविज्ञान का। इस जीव ने अब तक अनेक कार्य किये, पर भेदविज्ञान का कार्य नहीं किया। भेदविज्ञान का अर्थ है सबसे निराले अपने ज्ञानस्वरूप को पहिचान लेना। जब कभी आप जाप में, ध्यान में यह अनुभव करेंगे कि यह मैं हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, सबसे न्यारा हूँ, शरीर से भी जुदा हूँ। ऐसा ज्ञानमात्र अपने आपको जब निरखेंगे तो सब समाधान अपने आप हो जायेगा। मैं किसलिए यहाँ आया हूँ, मुझे क्या करना है, सब समाधान अपने आप हो जायेगा। और, जो इस धुन में रहता हो, उसके लिए न लौकिक दिक्कत रहती, न पारलौकिक दिक्कत रहती, सभी समस्यावों का हल हो ही जाता है, अपने आपको अपनी ओर अधिक ले जायें।
क्लेशों की काल्पनिकता पर एक दृष्टांत- यहाँ कोई किसी को दु:खी करने वाला नहीं, कोई भी किसी का बैरी नहीं, विरोधी नहीं, किंतु खुद ही अपनी कल्पनाएँ बनाकर दु:खी हो जाते हैं सभी चीजें जहाँ जैसी हैं तहाँ तैसी हैं, उससे मुझमें कुछ फर्क नहीं आता। मैं ही स्वयं अपनी कल्पनाएँ गढ़ता हूँ, और अपने को दु:खी कर डालता हूँ। जैसे कोई सेठ सो तो रहा है अच्छे कमरे में जहाँ पर सब प्रकार के साधन हैं, अनेक नौकर-चाकर हैं, मित्रजन भी दिल बहलाने के लिए बैठे हैं उसे सोते हुए में कोई ऐसा स्वप्न आये कि बड़ी तेज गर्मी लग रही है, चलें समुद्र की सैर करने। वह जब चलने लगा तो लड़के, स्त्री, नौकर सभी समुद्र में सैर करने जाने के लिए तैयार हो गए। सपरिवार सेठ समुद्र में सैर करने के लिए चला। नाव में सभी बैठ गए। जब करीब एक मील पानी में नाव तैर गयी तो एक भयानक भँवर समुद्र में उठी। नाविक बोला कि नाव न बचेगी, डूब जायगी, मैं तो किसी तरह तैर कर निकल जाऊँगा। सेठ हाथ पैर जोड़ने लगा। बोला- 10 हजार ले लो, 20 हजार ले लो, 50 हजार ले लो, पर हमें किसी तरह पार कर दो। नाविक बोला कि जब हमारे ही प्राण नहीं रहेंगे तो रुपये कौन लेगा? सेठ बड़ा दु:खी हो रहा है। ये सब स्वप्न की बातें कह रहे हैं। सेठ बड़ा विह्वल हो रहा था। अब आप यह बताइये कि उसके दु:ख को क्या उसके नौकर-चाकर, मित्रजन अथवा सारे आराम के साधन मेट सकते हैं? कोई भी उसके दु:ख को मेटने में समर्थ नहीं है। उसके दु:ख को मेटने में समर्थ तो यही है कि वह जग जाय, नींद खुल जाय, लो सारे दु:ख खतम हो गए। जहाँ देखा कि ओह ! वे तो सारी स्वप्न की चीजें थीं, न यहाँ समुद्र है, न कोई नाव डूब रही है, न कोई दु:ख की चीज है, बस सारे उसके दु:ख खतम हो गए।
ज्ञान से क्लेशों का प्रक्षय- ऐसी ही बात यहाँ के मोही जीवों की है, इसको मोह की नींद के स्वप्न आ रहे हैं, जिसके कारण ये सब दु:खी हो रहे हैं। यह मेरा है, मैं इसका हूँ, यह आया, वह मिटा ऐसे सारे स्वप्न जैसे ही तो दिख रहे हैं और इन स्वप्नों के फल में क्लेश ही क्लेश है। संपदा का समागम हो, अथवा कोई भी समागम हो, सबमें कुछ न कुछ क्लेश तो रहता ही है। चाहे हर्ष का क्षोभ रहे, चाहे खेद का क्षोभ रहे। मोह की नींद में जो कुछ समागम नजर आ रहे हैं ये सब क्षणभंगूर हैं, अहित हैं, पर ये मोही जीव इन्हें भी सच सच समझ रहा है। जैसे स्वप्न देखने वाला स्वप्न की बात को झूठ नहीं समझता ऐसे ही मोह की नींद में यह मोही प्राणी इस मायाजाल को झूठ नहीं समझ सकता। सच समझता है। अरे कोई गुजर गया तो मेरा ही तो गुजर गया, कैसे सुख मिलेगा, ऐसा वह बिल्कुल सत्य समझता है, इससे दु:खी है। ऐसे दु:खी पुरुष कैसे अपना दु:ख दूर कर सकेंगे? इसका कोई उपाय है क्या? कोई कुटुंबी इस दु:ख को मिटा सकेगा क्या? आत्मा के भ्रम से उत्पन्न हुए क्लेश को स्त्री, पुत्रादिक कोई भी मिटा सकने में समर्थ नहीं हैं। वे मीठी-मीठी बातें भी करेंगे, पर आपके दु:ख को नहीं मिटा सकते। खुद का ज्ञान ऐसा ऐसा जागरूक बनाना पड़ेगा तब दु:ख मिटेगा। तो इसे मोह की नींद में देखे गए स्वप्न से जो क्लेश हो रहे हैं उन क्लेशों के मेटने का उपाय केवल एक है। बहुत वैभव जुड़ जाय, परिजन मित्रजन बड़ी हंसी के शब्द भी बोलें, राग के शब्द भी बोलें, उससे दु:ख नहीं मिटता, यह आत्मा के भ्रम से उत्पन्न हुआ दु:ख है। यह दु:ख तब मिटेगा जब जग जाय, ज्ञान हो जाय, भेदविज्ञान जग जाय। अन्य उपायों से क्लेश नहीं मिटता।
अपने भले का विचार- अब अपनी-अपनी सोच लीजिए कि हम शरीर के आराम में, विषयों के आराम में अपना कितना तन, मन, धन, वचन सर्वस्व लगाते हैं और एक अपने ज्ञानप्रकाश के लिए, ज्ञान के अनुराग के लिए कितना तन, मन, धन, वचन लगाते हैं? दो ही तो खुराक है- शरीर की खुराक है भोजन, भोग, उपभोग और आत्मा की खुराक है ज्ञान। कोई पुरुष अज्ञान पीड़ित हो, तृष्णा से पीड़ित हो, अन्य कषायों के वशीभूत हो जिससे अत्यंत विह्वल हो रहा है। ऐसे विह्वल जीवों को कौनसे उपायों से शीतल बना सकते हैं? क्या उसे बर्फखाने में डाल दिया जाय तो उसकी विह्वलता शांत हो जायगी? अरे उसके शीतल करने का उपाय एक यही है कि वह अपने बारे में ज्ञान करे, अपनी ओर दृष्टि दे, अपने आपमें लीन होने का यत्न करे तो उसकी सारी विह्वलताएँ शीघ्र ही समाप्त हो सकती है। अपनी प्रगति के लिए, ध्यान के लिए, ज्ञान के लिए अपना सही विवेक बनायें। यों तो आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ये सभी चीजें सभी संसारी जीवों में लगी हुई हैं। मनुष्य में ही क्या विशेषता है? मनुष्य में विशेषता केवल धर्म की है। धर्म न रहे, ज्ञानदृष्टि न रहे तो जैसे सभी जीव हैं वैसे ही यह मनुष्य है, कोई फर्क नहीं होता है। यह धर्म का काम स्वाधीन है, दिखावट, बनावट, सजावट से परे है भीतर ही विचार करना है, सबसे न्यारा ज्ञानमात्र अपने आपको निरखना है, इसमें किसी की अधीनता नहीं होती है, ऐसे गुप्तरूप उपाय से, गुप्तरूप कल्याण का कार्य कर जायें तो यही सच्ची कमाई है, शेष तो सब स्वप्न की जैसी बातें हैं।