वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 71
From जैनकोष
पातयंति भवावर्ते ये त्वा ते नैव बांधवा:।
बंधुतां ते करिष्यंति हितमुदि्दश्य योगिन:।।71।।
बंधुता कैसी―हे आत्मन् ! जो कोई तुझे संसार के चक्र में डालते हैं उन्हें तुम अपना हितैषी कह सकोगे क्या? और सीधी भाषा में सुन लो। तुम्हें कोई किसी चक्कर में डाल दे, विपदा में गिरा दे, धोखा देकर परेशानी में डालकर खुद अलग हो जाये, उसको आप हितैषी कहोगे क्या? नहीं कहोगे। तो ऐसे बतलावो कौन-कौन हैं जो तुझे राग की बात बोल-बोलकर, तेरा दिल हर-हरकर उन्मत्त बना दें, परोपयोगी बना दें और खुद अलग का अलग हैं ही। अलग रहना तो वस्तु का स्वरूप है ही। ऐसी बात कहाँ-कहाँ बीत रही है? जिन-जिन के प्रति यह बात बीत रही हो उनको क्या आप हितैषी कहोगे? अब भी आप जवाब दे देंगे कि नहीं कहेंगे, लेकिन जब नाम लेकर बोल दें लो ऐसे तो हैं ये पुत्र, स्त्री, बंधु परिवार, मित्र तो अब दिल ठिठकने लगेगा। मैं उन्हें अहितैषी कह दूँ क्या? जो कोई तुझे संसार के चक्र में डालता है वह तेरा हितैषी नहीं है।
वास्तविक बंधु― जो लोग तेरे हित की वांछा करके तेरे साथ बंधुता का बर्ताव करें, तुझे विपदा से बचायें, संतोष के भावों में ले जायें वे ही वास्तव में तेरे सच्चे परममित्र हैं। बात सुनने में अच्छी लग रही होगी। क्या कहा? जो तुझे विपदा से बचाकर यथार्थ संतोष के भावों में ले जाये, तुझे निराकुल बनाने का यत्न करे वह पुरुष तेरा हितैषी है, लेकिन वह है कौन? उसका यदि नाम बता दें, उसका व्यपदेश कर दें तो अब रूखापन आ जायेगा। कौन है ऐसा? उपदेष्टा गुरु महाराज ये तेरे हित की वांछा करते हैं, हित का उपदेश करते हैं, शुभ और शुद्ध मार्ग बतलाते हैं, ठीक है। वे ही हितैषी हैं, लेकिन देखने में सामने यों नजर आता है कि कहाँ हितैषी हैं? वे तो ये-ये लोग हैं, जो गुरु, गुरु कहे जाते हैं। वे खुद बेठिकाने में हैं।
वास्तविक हितैषी― जिनको अपने आपकी सुध हुई है, अंतरंग से हित की भावना जगी है उनका निर्णय ठीक यही होता है, जो तुझे संसार के चक्र में डाल दें, वे बांधव नहीं हैं, वे भाई बंधु नहीं हैं, हितैषी नहीं हैं। किंतु जो पुरुष, जो ज्ञानी विरक्त संत निर्मोह है जिन्हें स्वार्थ का लगाव नहीं, जो किसी भी प्रकार से अपने इंद्रिय और मन के विषय को भोगना नहीं चाहते हैं ऐसे महापुरुष जो निरारंभ और निष्परिग्रह होकर हित का उपदेश करते हैं वे गुरु महाराज ही वास्तविक हितैषी हैं। इस जीव के महान् मोहरूपी राग से पीड़ित पुरुषों के लिये ये संतजन आकस्मिक वैद्य हैं, अचानक निरपेक्ष वैद्य हैं। ये उपदेष्टा गुरुजन तेरे निरपेक्ष बंधु हैं, तेरे मंगल को करने वाले हैं, कल्याण के सुख के साधक हैं। ये ही शरण है। ऐसे गुरुजनों के प्रति, संतजनों के प्रति तो यह श्रद्धा बने कि मेरा वास्तविक हितैषी यह है और जिसमें बसकर रात दिन राग और द्वेष के परिणाम ही किए जाते हैं, मेरा तेरा, मैं-मैं, तू-तू की वासना जिनके बीच रहकर दृढ़ बनती है वे बंधुजन तेरे हितैषी नहीं हैं― ऐसा निर्णय कर।
अनित्य का व्यर्थ मोह― इस अनित्य भावना के प्रसंग में इस अनित्यता को इस पद्धति से कह रहे हैं कि तू किनमें भ्रम कर रहा है कि ये मेरे मित्र हैं, जिनको तू जानता है, कल्पनाएँ करता है कि ये मेरे मित्र हैं वे सही मित्र नहीं हैं। तू अनित्य में अपने हित की आशा रखता है। इनको छोड़। ये गुरुजन ही तेरे शरण हैं। इन गुरुजनों में कोई व्यक्ति नहीं आया जिससे कि मोह बने। वे तो एक सामान्यस्वरूप हैं। देव, शास्त्र, गुरु वे अपने जातिस्वरूप में समाये हुए हैं। किंतु घर में ऐसा नहीं होता। उनका चेहरा शकलसूरत वाणी देखकर व्यक्ति से मोह होता है। तू अनित्य व्यक्तियों से मोह मत कर और अपने शरणभूत साधु संतजनों के उपदेश पर अपना निर्णय बना। यही तुम्हारे कल्याण का एक मात्र उपाय है।