वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 72
From जैनकोष
शरीरं शीर्यते नाशा गलत्यायुर्न पापधी:।
मोह: स्फुरति नात्मार्थ: पश्य वृत्तं शरीरिणाम्।।72।।
आशा की अशीर्णता पर खेद― आचार्यदेव आश्चर्यपूर्वक कह रहे हैं कि देखो शरीर तो प्रतिदिन क्षीण होता जाता है परंतु यह आशा शीर्ण नहीं होती है। शरीर वृद्ध हो गया, रोग से दब गया, शक्ति नहीं रही उठने बैठने, खड़े होने की, मृत्यु निकट है किंतु आशा में कितना-कितना काल्पनिक वैभव भरा पड़ा हुआ है जिसकी कोई हद नहीं है। यह आयु तो गल जाती है, मगर पाप करने की बुद्धि नहीं गलती है। कितनी ही उमर हो गई, वृद्ध हो रहे, आयु गलने के निकट है लेकिन विषयों की आशा और विषयों की आशा के ही कारण अन्य जीवों को धोखा देना अथवा सताने आदि की बुद्धि यह बराबर चलती रहती है, यह आशा गलती नहीं है।
मोहस्फुरण पर खेद― जीव के मोह तो वृद्धिगत होता है पर आत्मकल्याण का भाव नहीं स्फुरायमान् होता है। अहो ! देखिये इन देहधारियों का समाचार कितना आश्चर्यकारक है। जैसे दिन भर की धूप से तपे हुए बगीचे के पौधों को किसी एक समय और वह भी प्रात:काल ठंड के समय अथवा शाम के समय उनमें पानी डाल देने पर वे उस गहरी ताप से भी मुरझाते नहीं हैं, ऐसे ही इस गृहस्थावस्था में नाना उपद्रव नाना परिषह सहे जाते हैं, बड़े-बड़े संताप होते हैं। परिग्रह का संबंध तो संताप का हेतु है, ऐसे इन गृहस्थी के संतापों से तपे हुए इन प्राणियों को, इन पौधों को जरूरत है कि किसी क्षण आध मिनट भी ये अपने आत्मा के इस आकिंचनस्वरूप की श्रद्धा कर लें, आत्मप्रतीति जल से अपने मूल का सिंचन करके एक क्षण भी अपने आपके अकिंचन स्वरूप की श्रद्धा कर ले तो शेष रात दिन का सारा संताप वह योग्य ढंग से झेल सकता है अन्यथा तो यह मोही निरंतर व्याकुल होता हुआ अपने इस जीवन को भी किरकिरा कर देता है। देखिये कितने कठिन उपसर्ग हैं, उपद्रव हैं? ये सब उपद्रव भीतर चल रहे हैं। ऐसा कर करके किसी ने कुछ लाभ पा लिया हो तो चलो वह भी ठीक है, पर लाभ क्या मिला? जीवनभर आशा की और फिर ज्यों का त्यों रहे। जैसा परिणाम है, कलुषता है, मोह है, रागद्वेष है बस वही पास रह गया और कुछ नहीं है।
पापबुद्धि के न गलने पर खेद― अहो, देखो मोह की दशा, पाप की बुद्धियाँ की जा रही हैं। स्पर्शन इंद्रिय, रसना इंद्रिय, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इंद्रिय इनके वशीभूत होकर यह नाना खोटे परिणाम करता रहता है। यह पापबुद्धि नहीं गलती है और आयु देखो प्रतिक्षण गलती जा रही है। एक जगह लिखा है कि व्रतों में दुर्धर व्रत ब्रह्मचर्य व्रत है। इंद्रियों में कठिन इंद्रिय है रसना, गुप्तियों में कठिन गुप्ति है मनोगुप्ति। तो ब्रह्मचर्य का उल्टा है स्पर्शनइंद्रिय का विषय। तो ये दो इंद्रियाँ बहुत कठिन इंद्रियाँ है और इन दोनों इंद्रियों को उत्साह देने वाले हैं ये नेत्र। देखने से ही आगे बढ़कर नाना व्यंजनों के खाने की सुध होती है और इस नेत्रइंद्रिय से रूप को देखने पर स्पर्शनइंद्रिय के विषय में इसकी आसक्ति होती है। तो स्पर्शन इंद्रिय के विषय में साधक है रसना और चक्षुइंद्रिय। अब देख लो कितनी सुविधा मिली है कि इस रसना और चक्षु इन कठोर इंद्रियों को दबाने के लिये हम आप दो-दो ढक्कन मिले हैं। बंद कर लें। आँखों को दबाने के लिये दो-दो पलक मिले हैं और रसना को दबाने के लिये दो ओंठ मिले हैं। किस्सा खत्म। पर इनका उपयोग कर सकें, ऐसी बुद्धि भी सही सलामत रहे तब बात बने।
मोहियों की आत्महित की अनुत्सुकता― यह मोह तो स्फुटायमान् होता है, वृद्धिगत होता है, किंतु आत्महित की उत्सुकता भी नहीं होती। मोह से हटने का तो कभी मन में आता ही नहीं चलो शांत हो, मोह कम करें, विवेक हो, भेदभाव हो ऐसी भावना भी बने तो चलो कह लो कि मोह को हटाने की बात चित्त में आयी, यह सब अज्ञान का माहात्म्य है। अज्ञान जैसा पाप अन्य क्या होगा? वस्तुस्वरूप का यथार्थ बोध न हो सके, उल्टा-उल्टा माने, निज की सुध न रहे, पर को निज माने ऐसा अज्ञानभाव का फल कितना खोटा होता है? जैसे केवलज्ञान की महिमा, बड़प्पन, महत्व बताने की सामर्थ्य नहीं है ऐसे ही इस अज्ञान की महिमा माहात्म्य बताने की भी सामर्थ्य नहीं है। अब हे आत्मन् ! वस्तुस्वरूप का ज्ञान करके, भेदविज्ञान उत्पन्न करके इस अज्ञान को दूर करो, मोह को क्षीण करने का उपाय करो, पापबुद्धि और आशा को हटावो। तू स्वयं ही परम आनंदमय है, अपने स्वरूप का स्पर्श करके आनंद तो भोग।