वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 793
From जैनकोष
दृष्ट्वा श्रुत्वा यमी योगिपुण्यानुष्ठानमूर्जितम्।
आक्रामति निरातंक: पदवीं तैरुपासिताम्।।
सत्संग से संतों की भांति सद्विकास का लाभ- जो सज्जन पुरुष होते हैं, संयमी, ज्ञानी, मुनि उन संत पुरुषों का आचरण देखकर अथवा किन्हीं संत पुरुषों की कथा सुनकर खुद के परिणाम निर्मल होते हैं और ऐसी इच्छा जगती है कि उन योगीश्वरों जैसा कार्य करके ऐसे उत्कृष्ट सुख को प्राप्त करना है जिस सुख में बीच में कहीं उपद्रव न आना चाहिए। सत्संग का ऐसा असर होता है। एक कवि ने कहा है कि दो तोते थे भाई भाई, एक साथ पैदा हुए, उनमें से एक तोता तो आ गया चांडाल के घर, जिसका हिंसा करने का काम था, शिकार शिकार की ही जिसमें रट थी, ऐसे पुरुष के घर में आ गया और दूसरा किसी ज्ञानी पुरुष के घर में। तो कुछ समय बाद उन तोतों पर ऐसा असर पड़ा कि जो हिंसक के घर में आया था वह तोता तो काटो छेदों की रट लगाये और एक तोता राम राम की रट लगाये। तो देखो संगति का ऐसा ही असर होता है। जब पशु पक्षियों पर भी सत्संग का असर लगता है तो मनुष्य पर क्यों न लगेगा? जिस मनुष्य को अपनी उन्नति चाहिए वह अपना संबंध अपनों से बड़ों का रखे, संयमपूर्वक रहते हुए जो ज्ञानवार्ता करता हो, जिसके चित्त में ज्ञान समाया हो ऐसे मनुष्य के निकट बैठें, मन न लगता हो तो जबरदस्ती बैठें, कुछ समय बाद ऐसा प्रभाव होगा उस सत्संग का कि स्वयं अच्छे आचरण में लग जायेगा। सत्संग से अधम से अधम भी तिर गए, ऐसे बहुत से कथानक मिलेंगे। जब बड़ों का आचरण देखते हैं तो खुद भी वैसा ही आचरण करने का प्रयत्न करने लगते हैं। यही एक कारण है कि अच्छे पुरुष की सोहबत में रहने से अपने में अच्छे गुण आ जाते हैं। जो पुरुष ज्वारी हों, मांसभक्षण, मदिरापान करते हों, स्त्री व्यसन करते हों, चोरी करते हों, झूठ बोलते हों, दूसरों की निंदा करते हों, ऐसे पुरुषों का संग करने से खुद भी ये अवगुण आ जाते हैं तो आप अपनी जिंदगी में सिर्फ दो ही कामों पर दृष्टि डालें- एक तो कभी क्रोध न करें और दूसरे कभी दूसरों की निंदा न करें। मोह का छोड़ना यदि कठिन है तो हम उसकी बात अभी नहीं कह रहे लेकिन मोह के त्यागे बिना तो धर्ममार्ग में कोई चल ही नहीं सकता, पर वह बड़ा कठिन लग रहा होगा, वह तो ज्ञान द्वारा दूर होता है। तो इतनी बात चित्त में लावें कि कभी क्रोध न करें और दूसरों की निंदा न करें।
क्रोध में स्वगुणदहन- देखिये क्रोध में अपने समस्त विवेक खतम हो जाते हैं, अपनी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, फिर कभी हित की बात नहीं सोच सकते। क्रोध करके तो यह जीव अपना सारा बिगाड़ ही कर लेता है। जिस पर क्रोध किया है वह तो तुरंत सजा देने की सोचेगा। अपना आत्मा तो आनंदस्वरूप है, ईश्वर का रूप है। इस आत्मा ने क्रोध करके जो अपने को सता डाला तो यह अपने आप पर अन्याय ही तो किया। दुनिया में देख लो, क्रोध करके किसी ने कोई लाभ पाया? बड़े-बड़े पुरुषों का चारित्र देख लो, क्रोध करके वे भी यत्र-तत्र कितना पीड़ित रहे? और, फिर सर्वत्र क्रोधमयी जीवन में सार कुछ भी नहीं निकलता है। खुद को परेशान करना, दूसरे जीवों को दु:खी करना यह कोई भली बात नहीं है। पहली बात जीवन में समानी चाहिए कि हमें अपने जीवन में क्रोध न करना पड़े। क्रोध न करें और दूसरी बात बतायी है निंदा न करना।
निंदक और निंदा की निंद्यता- निंदा करने वाले को तो सबसे अधिक निंदनीय बताया गया है। उसे एक तरह से चांडाल की उपमा दी है। सबसे अधिक चांडाल पशुवों में तथा, पक्षियों में कौवा और मनुष्यों में निंदक। जो पुरुष दूसरे की निंदा करता है वह दूसरों से आदर नहीं पाता है बल्कि दूसरों की निगाह में गिर जाता है। लोग समझ जाते हैं कि इसका ही बड़ा तुच्छ हृदय है और यों कल्पनाएँ लोग कर लेते कि इसकी कुल परंपरा में भी ऐसे ही दूसरों की निंदा करने वाले लोग होंगे तो निंदा करना बहुत खोटी प्रवृत्ति है, और, निंदा करने वालों को बिना मतलब में विपत्ति मिलने लगती है। जिसको निंदा की, वह भी अपनी मंडली बनाकर उससे बदला लेने की बात सोचेगा। तो निंदक पुरुष की कोर्इ इज्जत नहीं रहती। और, जो निंदा करना एक बहुत बड़ा दुर्गुण समझते हैं, निंदा से दूर रहते हैं वे मनुष्य होकर भी देवस्वरूप बन जायेंगे।
क्रोध और निंदा न करने के कर्तव्य की उन्निनीषुको अत्यावश्यकता- एक तो क्रोध न करना और एक निंदा न करना ये दो मुख्य गुण प्रत्येक व्यक्ति में होना चाहिए। क्रोध न करने के लिए थोड़ा यह विवेक जरूर होना चाहिए कि जगत के ये सब जीव हैं उन सबके अपनी-अपनी कषायें लगी हैं और अपनी-अपनी कषायों के अनुसार ही वे अपना काम करते हैं। उनसे मेरा क्या बिगाड़ है? मेरा ही भाव खोटा हो तो मेरा बिगाड़ होगा। अपना परिणाम क्यों बिगाड़े? अपने परिणामों को निर्मल रखें तो मेरे क्षमा बनी रहेगी। क्रोध न होगा। ये दो दुर्गुण छूट जायें तो आत्मा में एक बहुत बड़ी शांति संतोष प्राप्त होगा। ये सब बातें मिलेंगी किसी महान पुरुष की सेवा में रहने से। उनके पवित्र आचरण को देखकर यह इच्छा होगी कि मैं तो ऐसा ही आचरण करूँ और मैं भी इसी प्रकार शांत सुखी हो सकूँ। तो महापुरुष की संगति का बहुत बड़ा महात्म्य है। अपना श्रम करके सब कुछ न्यौछावर करके भी कोशिश यह करते रहें कि संत महंतों का, ज्ञानी पुरुषों का संग अधिकाधिक मिलता रहे, उससे परिणाम निर्मल होगा। परिणाम निर्मल होने से पुण्यबंध होगा और विशेष निर्मलता से धर्मलाभ होगा। धर्मलाभ होने से सुख शांति प्राप्त होगी।