वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 794
From जैनकोष
विश्वविद्यासु चातुर्यं विनयेष्वतिकौशलम्।
भावशुद्धि: स्वसिद्धांते सत्संगादेव देहिनाम्।।
सत्संग से विद्याचातुर्य का लाभ- सत्पुरुषों की संगति से समस्त विद्यावों की चतुरता की प्राप्ति होती है। जो बातें वचनों से नहीं मिलती, वे सज्जन पुरुषों के संग में रहने से प्राप्त हो जाती हैं। सज्जन पुरुषों को रात दिन की चर्या के अवलोकन से उनकी प्रयोगात्मक धीरता और गंभीरता के अध्ययन से जो बातें प्राप्त होती हैं वे बातें सीखने से सुनने से भी प्राप्त नहीं हो सकती हैं। जो अनुभवपूर्ण ज्ञान सत्पुरुषों के संग में रहने से प्राप्त होता है वह ज्ञान बड़े-बड़े याद करने से, परीक्षा देने से, सीखने से भी नहीं प्राप्त होता। जैसे- तैरने की कला कोई वचनों से खूब सीखा दे, यों पैर फटकाना, यों हाथ चलाना, यों तैरने की सारी विधियाँ चार छ: महीने तक कोई खूब पुस्तकों से अध्ययन करा दे और बाद में परीक्षा करने के लिए उन्हें किसी नदी में ढकेल दे तो क्या वे बच्चे उस नदी में तैरने लगेंगे? कोई कहे मास्टर से कि तुमने क्यों इन बच्चों को पानी में ढकेला? तो वह मास्टर कहेगा- वाह हमने तो इन्हें चार छ: माह तक खूब तैरने की कला का अध्ययन कराया। आज इनकी परीक्षा की। अरे भाई तैरने की बात वचनों से नहीं आती, पानी में गिरकर अनेक बार तैरने का अभ्यास करने से तैरने की कला आती है। ऐसे ही रोटी बनाने की कला है। कोई वचनों द्वारा रोटी बनाने की कला खूब सिखा दे और फिर धर दे आटा उसके सामने कि साहब बनाओ रोटी, तो क्या वह रोटियाँ बना लेगा? अरे शब्दों द्वारा रोटी बनाने की कला नहीं आती। ऐसे ही समझ लो- जो बातें बहुत-बहुत वचनों से सिखाने पर भी नहीं सीखी जा सकती वे बातें सज्जन पुरुषों के संग में रहकर सीख ली जाती हैं। उनकी चर्या से, उनके विचारों से, उनकी मुद्रा से जो अध्ययन मिलता है वह अध्ययन एक विलक्षण होता है और चित्त पर सीधा सही प्रभाव करने वाला होता है।
सत्संग से विनयकुशलता का लाभ- सत्पुरुषों के संग से सभी प्रकार की निपुणता प्राप्त होती है। पहिला गुण तो यह अतिशयपूर्वक प्रकट होता है। दूसरा गुण सत्पुरुषों के संग से यह प्राप्त होता है कि विनय में अति प्रवीणता ऐसी हो जाती है जो लौकिक और पारलौकिक दोनों सुखों का कारण बनती है। भावों की विनय कहीं परीक्षा करके सिखाने से तो नहीं आ सकती। यों तो कसरत कहलाने लगेगा। इस तरह सिर नवावो, इस तरह बैठो, इस तरह झुको यह सब तो कवायत है। विनय नाम तो उस भाव का है जो विशेषरूप से सत्पथ में लग जाय। विनय में दो शब्द हैं- वि और नय। वि तो उपसर्ग है और नय धातु है ले जाने के अर्थ में। जो आत्मा को विशेषरूप हितपंथ की ओर ले जाय उसे विनय कहते हैं। यह विनयभाव उत्पन्न होता है सत्पुरुषों के संग में निवास करने से। जब सज्जनों के गुण चित्त में भी आ जाते हैं और उन गुणों पर विशेष अनुराग जगता है तो उस गुणानुराग के कारण आत्मा में विशेष विनयभाव उत्पन्न होता है। तो विनय में अति प्रवीणता सत्संग से उत्पन्न होती है। भैया ! विनय बिना कहीं सुख न मिलेगा। इस लोक में भी जो पड़ोसियों से, अन्य लोगों से सद्व्यवहार अपने को प्राप्त होता है वह विनय के कारण ही होता है। किसी पुरुष से अविनय से बोलें, अरे आदिक धुतकारने के शब्दों का प्रयोग करें तो उसके एवज में क्या मिलेगा दूसरे से, इसका अनुमान कर लो। दूसरे से अच्छा बोलेंगे तो दूसरे से भी अच्छा बोलने की आशा की जा सकती है। विनय बिना पुत्र भी पिता से सुख नहीं पा सकता, विनय बिना मित्रता भी नहीं रह सकती है। विनय बिना व्यापार भी नहीं चल सकता। लौकिक कार्य भी विनय पर निर्भर है, और मोक्ष का कार्य तो विनय पर अधिक निर्भर है।
विनय के प्रकार व लाभ- विनय 5 प्रकार के कहे गए हैं- ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय। ज्ञानी पुरुषों का और ज्ञानभाव का विनय करना ज्ञानविनय है। ज्ञानी पुरुष और ज्ञानगुण का महत्त्व समाया रहे यही महान पुरुष है, यही महानभाव है। ज्ञान से ही इस संसारसागर से तिरा जा सकता है। ज्ञान से ही शांति और आनंद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार ज्ञान का विनय रखना, यही है ज्ञानविनय। दर्शनविनय- जो श्रद्धानी जीव हैं, प्रभु के भक्त हैं ऐसे पुरुषों का विनय करना और सम्यग्दर्शन नामक गुण का विनय करना यही है दर्शनविनय। ये जगत के जीव इस निज श्रद्धान को नहीं पा रहे हैं अतएव संसार में रुल रहे हैं। सत्य श्रद्धान प्राप्त हो तो इसका संसार का रुलना समाप्त होगा। यों सम्यक्त्व के गुण चिंतन में रखना यह सब दर्शनविनय है। जो मनुष्य चारित्र के धारी हैं, जिनका व्रत संयम जीव रक्षा करने वाला है ऐसे व्रती संयमी साधुवों की विनय करना सो चारित्रविनय है। तपश्चरण करने वाले साधु संतों का विनय करना और तप की महिमा जानना सो तप का विनय है। और, यहाँ व्यवहार में एक दूसरे को देख कर उनसे विनय करना उपचार विनय है। जो जीव मोक्षमार्गी मनुष्यों का विनय करते हैं वे अपने आपके उद्धार के लिए विनय करते हैं। ये सब विनय गुण भी सज्जन मनुष्यों के संग में रहकर प्राप्त किए जाते हैं।
सत्संग के अन्य लाभ- सत्पुरुषों के संग से तीसरा गुण यह अद्भुत प्रकट होता है कि अपने सिद्धांत में भावों की शुद्धि बनती है। तत्त्व के संबंध में नि:संदेहता जगती है। कितनी ही ज्ञान की बातें ऐसी हैं कि सुन सुनकर उनमें मजबूती नहीं आती। संदेह बना रहता है और सत्पुरुष के संग में रहने से संदेह मिट जाता है। और, तत्त्व का ज्ञान सत्पुरुषों के संग रहने से दृढ़तापूर्वक होता है, संदेहरहित होता है, वहाँ ज्ञानमात्र ग्रंथों के अध्ययन कर लेने से भी नहीं होता। तो संत मनुष्यों के समागम से ये तीन महागुण प्रकट होते हैं। समस्त विद्यावों में चतुराई आना, विनय में अत्यंत प्रवीणता बनना ये गुण सत्संग से प्रकट होते हैं।