वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 799
From जैनकोष
न हि भवति निर्विगोपकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम्।
प्रकटितपश्चिमभागं पश्यत नृत्यं मयूरस्य।।
गुरुसंगसेवा बिना विज्ञान की विडंबितता- सही मायने में ज्ञान की प्राप्ति गुरु से होती है। जैसे कोई बातें पुस्तक में लिखी हैं और उस पुस्तक को भी पढ़कर ज्ञान कर लिया जाता है, पर जो ज्ञान गुरुमुख से सुनकर जैसा अनुभव के साथ जगता है वह ज्ञान अपने आप यों ही सीख लेने से नहीं जगता, कितने ही अनुभव ऐसे होते हैं कि जिन्हें दूसरा कोई प्रकट ग्रहण नहीं कर सकता। गुरुवों के संग में रहकर, गुरुवों की सेवा करके उन तत्त्वों का मर्म प्राप्त होता है। बड़े-बड़े व्याख्यानों से भी जो दृष्टि न बन सके गुरुवों के संग में रहकर किसी भी समय साधारण वाक्यों में भी उस मर्म की झलक हो जाती है। जो पुरुष गुरुकुल की उपासना नहीं करते अर्थात् गुरुवों के समूह के बीच नहीं रहते, उनका ज्ञान करना चाहते हैं तो उनकी ज्ञानकला, उनकी चतुराई प्रशंसा के योग्य नहीं रहती। भले ही एक जानकारी की कला आ गयी। पर सही मायने में नहीं आ सकती। जैसे नाचने की एक कला होती है। कोई किसी समझदार से सीखे और कोर्इ अपने आप सीखे तो उसमें तो कुछ अंतर होता है ना? एक मोटा दृष्टांत ले लो। मयूर नाचता है तो वह कहीं सीखने तो नहीं जाता है, सो देखा होगा कि मोर जब नाचता है तो थोड़ा उसकी मुख की तरफ तो अच्छा लगता है और पीछे कैसा बुरा लगता है? तो नृत्य करने का विधान कोई शास्त्रानुकूल सुंदर श्रृंगार सहित न सीखे तो उसका नृत्य प्रशंसनीय नहीं होता। ऐसे ही समझिये कि तपस्वी अनुभवी गुरुजनों के निकट रहकर सीखे बिना जो क्रिया की जाय वह विधिवत् ठीक नहीं होती। अपने को विशेष ज्ञानी मनुष्यों के संग में रहकर ही विद्या सीखना चाहिए। अपने आप सीखी हुई विद्या में उसका ठीक मर्म अनुभव में नहीं आ पाता।
गुरुसंगप्रसाद बिना अनुभवी विज्ञान का अलाभ- एक शिष्य ने गुरु से लाठी चलाना सीखा। लाठी चलाने की अनेक कलायें होती हैं जैसे सीधी, चौमुखी, जंग आदि। जब सारी कलायें सीख ली तो शिष्य को कुछ घमंड आया और उस गुरु से ही बोला कि गुरुजी हम तो आपसे लडेंगे। भला बतावो गुरु तो वृद्ध पुरुष और वह शिष्य नवयुवक कहने लगा कि हम तो तुमसे ही लाठी से लडेंगे। तो गुरु बोला कि अच्छा भाई लड़ लेना। 15 दिन की मोहलत दे दो, 15 दिन के बाद अमुक दिन दोपहर को लाठी लेकर आ जाना। अब वह शिष्य सोचता है कि 15 दिन में गुरुजी क्या करेंगे, इसे देखना चाहिए। गुरुजी ने क्या किया कि एक 15-16 हाथ का मोटा बांस अपने दरवाजे पर रख लिया और उसे रोज रोज खूब साफ करे, खूब तेल लगाकर उसे चिकना बनाये। शिष्य यह दृश्य देखकर सोचता है कि गुरुजी ने 15-16 हाथ का डंडा रखा है सो मैं इनसे दूना लगभग 30-32 हाथ का बांस रखूँगा। रख लिया बांस। जिस दिन लड़ाई का समय आया उस दिन शिष्य अपना 30-32 हाथ का बाँस लाया और गुरुजी अपनी वही 3।। हाथ की लाठी लेकर आये। अब वह उतना लंबा बाँस कैसे उठाये, कैसे घुमाये, क्या करे? आखिर गुरुजी ने अपनी लाठी से उसे परास्त कर दिया। तो विद्याएँ सीखी तो जाती है पर छोटे से छोटे अनेक नुक्ते जो एक मर्म को लिए हुए होते हैं वे तो अनुभव से ही प्राप्त होते हैं। पुस्तकें बहुत सी हैं जिनसे अनेक विद्याएँ सीख ली जाती हैं, पर मास्टर से, गुरु से, साधु संतों से जो विद्या प्राप्त होती है वह अनुभवपूर्ण होती है। हमारा कर्तव्य है कि हम किसी भी बड़े को, संत को जिससे अपना हित हो, विद्या मिले, आत्मलाभ हो, कलायें ज्ञात हों उनके संग में रहें, उनकी उपासना करें और ज्ञानार्जन करें। लोक में ज्ञान से बढ़कर और कुछ भी सुखदायी तत्त्व नहीं है, खूब विचारते जाइये। ये लोक के प्राणी क्यों अपने आपको दु:खी अनुभव कर रहे हैं? सभी मनुष्यों को देख लो- जिनके बड़े-बड़े ठाठ हैं वे भी अपने आपको कैसा दु:खी अनुभव करते हैं, ऐसी सब की हालत हो रही है। तो वह दु:ख है क्या? केवल एक कल्पना बनाया उसका दु:ख है। आपसे भी बहुत ज्यादा कल्पना बनायी उसका दु:ख है। आपसे भी बहुत ज्यादा दु:खी हजारों और लाखों पुरुष होंगे, पर यह अनुभव नहीं किया जा रहा है कि हम कितना सुखी हैं, कितना हम अच्छे वातावरण में हैं? सुख शांति धन वैभव से तो नहीं मिलती, अगर सम्यग्ज्ञान का अभाव है तो सुख शांति कहाँ से मिले? यहाँ क्लेश मिटाने का अन्य कोई उपाय नहीं, अगर एक ज्ञान है तो क्लेश मिट सकता है। जिस क्षण कभी भी अपने को एक निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप का अनुभव बन जायेगा तो समझो कि सब कुछ पाया नहीं तो सब कुछ खोया ही समझिये। महत्त्व आंकने की बात है।
ज्ञानी का ज्ञानमग्नता में कल्याणलाभ का निश्चय- एक यह दृष्टि बन जाय कि महत्त्व तो अपने आपको ज्ञानमग्न कर लेने की स्थिति का है। बाकी सब मायाजाल है और जो कुछ यह विचार कर रहा वह भी सब मायाजाल है। उसमें शांति नहीं बसी है। शांति तो मिलेगी, बाहरी विकल्प छूटें और अपने आपका एक ज्ञानमात्र अनुभव बने, मैं तो सिर्फ ज्ञानप्रकाशरूप हूँ, इतना भी विकल्प न उठाऊँ किंतु ऐसा अनुभव बन जाय तो शांति उस पद में मिलेगी, ऐसा दृढ़ निर्णय होना चाहिए। चाहे कुछ भी करना पड़े किंतु ज्ञान कमजोर न होना चाहिए। बड़े-बड़े साधु संतों का ज्ञान और गृहस्थों का ज्ञान तो एक सा ही होता है सिर्फ अंतर यह रहता कि साधु संत तपश्चरण ज्यादा करते हैं, संयम ज्यादा करते हैं। उन्हें प्रभुभक्ति के लिए आत्मध्यान के लिए समय भी मिलता है, गृहस्थ की ये हर बातें कम कम हैं, पर ज्ञान की दृष्टि से जैसा ज्ञान बड़े तपस्वी का है वैसा ही ज्ञान गृहस्थज्ञानी का भी है। ऐसा नहीं है कि साधु तो यह समझे कि आत्मा आनंदरूप है और गृहस्थ यह समझे कि आत्मा को आनंद विषयों से आता है। ज्ञान तो दोनों का एक सा है, यदि अपने निज अंतस्तत्त्व की श्रद्धा दृढ़ता से रहे तो यही एक मात्र सार है। इतनी स्पष्टता आ सके तो जीवन सफल है। फिर चाहे कैसी ही स्थिति गूजरों बाहर में, उसका कुछ भी महत्त्व नहीं है। ये सब बातें प्रयोगात्मकरूप से, सत्पुरुषों के संग से पायी जाती है, ऐसे सत्पुरुषों के संग में रहने से सब मर्म स्पष्ट अनुभव में आते हैं।