वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 800
From जैनकोष
तप: कुर्वंतु वा मा वा चेद्वृद्धान्समुपासते।
तीर्त्वा व्यसनकांतारं यांति पुण्यां गतिं नरा:।।
वृद्धसेवा से पुण्यगति का लाभ- सत्संग करना यह एक बड़ा तपश्चरण है। जो मनुष्य शारीरिक शक्ति से हीन हैं, व्रत नियम तपश्चरण अधिक नहीं कर पाते हैं किंतु सत्संग की रुचि है, सत्संग में पड़े रहते हैं तो उस सत्संग की उपासना से वे पुरुष चाहे तप कर सकें अथवा न कर सकें लेकिन दु:खरूपी वन को पार करके नियम से अटल गति में पहुँच जाते हैं। एक सत्यदृष्टि से बात सोचें कि आत्मा का सुख, आत्मा का कल्याण, ज्ञानी संत मनुष्यों के संग से प्राप्त हो सकता है। परिजनों के संग में रहने से उनसे मोहममता करने से तो क्लेश है, दुर्गति है। और, जो ज्ञानी संत तपस्वी जन हैं उनकी संगति से सत्यप्रकाश मिलेगा, अपने शुद्ध पथ पर लगने की प्रेरणा मिलेगी, अनेक कर्म कटेंगे, भविष्य अच्छा बनेगा, लेकिन मोह में यह बात कहाँ सूझती है? जो संग हमारे कष्ट का ही कारण बनेगा, बन रहा है वह संग तो मोह में रुचता है और जो संग हमारे कष्ट का निवारण कर सके ऐसा ज्ञानी संतों का संग मोहियों को नहीं रुचता है। लोग परिजनों का महत्त्व देते हैं। पर सत्संग का महत्त्व नहीं देते।
असद्रुचि में सत्संग महत्त्व की उपेक्षा- देखिये- जिसकी जहाँ रुचि जग गयी है वह वहाँ ही प्रसन्न रहना चाहते हैं। दो सहेली थी, एक थी मालिन की लड़की और एक थी ढीमर की लड़की। उनमें बड़ी मित्रता थी। तो मालिन की लड़की किसी बड़े कस्बे में ब्याही गयी, उसका काम था फूल चुनना, फूलों का हार बनाना और शय्या सजाना। ढीमर की लड़की ब्याही गई किसी तालाब के निकट एक छोटे से ग्राम में। उसका काम था मछलियाँ पकड़कर बेचना। उनकी गंदी हवा में रहना। एक दिन ढीमर की लड़की उस कस्बे में गई मछलियाँ बेचने। जब शाम हो गयी तो सोचा कि आज रात को अपनी सहेली के घर ठहर जाये और सबेरा होते ही चली जायेंगी। सो जब वह मालिन की लड़की के घर पहुँची तो उसने अपनी सहेली का बड़ा आदर किया। शाम को भोजन कराने के बाद बिस्तर लगा दिया, सुंदर फूलों से सजा दिया। ढीमर की लड़की जब वहाँ लेटी तो उसे नींद न आये। मालिन की लड़की पूछती है क्यों सहेली नींद क्यों नहीं आती? तो वह ढीमर की लड़की कहने लगी, सहेली क्या बताऊँ, यहाँ फूलों की बदबू इतनी है कि उसके मारे नींद नहीं आती। तो सहेली क्या करूँ? इन कपड़ों को बिल्कुल बदल दो, दूसरे कपड़े इसमें बिछा दो, फूलों को बिल्कुल हटा दो, तब नींद आयगी। उसने वैसा ही किया तब भी उसे नींद न आये। तब फिर वह मालिन की लड़की पूछती है सहेली अब क्यों नींद नहीं आ रही? तो वह बोली- सहेली यहाँ तो सारे कमरे में फूलों की बदबू भर गई है, अब काम यह करो कि वह जो मछलियों का टोकना रखा है उसमें थोड़ा पानी छिड़कर मेरे सिरहाने रख दो तब नींद आयगी। उसने वैसा ही किया। जब मछलियों की बदबू उसे मिली तब नींद आयी। ऐसे ही समझ लो जो मोही अज्ञानी मलिन लोगों के बीच में रह रहे हैं उन्हें वे ही रुचते हैं, उन्हें ज्ञानी संत मनुष्य का संग नहीं रुचता है।
ज्ञान की परमशरणरूपता- इस जीव का वास्तव में ज्ञान ही शरण है। ज्ञानी तपस्वी मनुष्यों की संगति करके वह ज्ञान प्राप्त होता है। उनके निकट बैठने से सारे विषयों के विचार बदल जाते हैं। ज्ञानी साधु संतों की संगति में रहने वाले के ऐसा उत्साह जगता है कि मैं अपनी पूर्ण शक्ति लगाकर इन विषय विपदाओं से निवृत्त होऊँ और अपने सहज ज्ञानस्वरूप की आराधना में लगूँ। इतना प्रबल प्रभाव सत्संग से हुआ करता है। सर्वविकारों में खोटा विकार है काम विकार। यह कामव्यथा इस जीव को ऐसी पीड़ित करती है कि काम में आसक्त मनुष्य आत्मध्यान का, आत्मज्ञान का पात्र भी नहीं रह सकता है। संसार में हम आप सब जीवों को एक अपने आत्मतत्त्व का ध्यान ही शरण है। किसी भी पदार्थ की शरण में जावो, सबसे धोखा ही मिलेगा। किसका संग सदा रहा करता है? स्त्री, पुत्र, मित्र आदि ये सब खूब मिल-जुलकर रहें, पूर्ण प्रेम से भी रहें फिर भी उसका महत्त्व क्या? प्रथम तो ऐसा होना कठिन है कि सदा मित्रता किसी से रह सके। कषाय के प्रतिकूल कुछ भी बात आये तो जरासी बात में बिगाड़ हो सकता है, और फिर मान लो रही आये मित्रता लेकिन मरण तो अवश्य होगा, वियोग तो जरूर होगा। वियोग के समय में उससे भी अधिक दु:ख होगा जितना कि प्रेम माना था तो संसार में किसी के भी निकट जावो, किसी का भी शरण गहो, सब जगह धोखा मिलेगा, अशांति मिलेगी। और एक प्रयोग करके देख लो, अपने अंदर में साहस बनाकर निरख लो मुझे किसी भी परवस्तु से कुछ प्रयोजन नहीं है। सभी परपदार्थ मेरे स्वरूप से अत्यंत जुदे हैं। मैं इस समय अपने आपके ज्ञानस्वरूप की आराधना में ही लगता हूँ, किसी भी परमार्थ का विकल्प नहीं करता, ऐसा दृढ़ निर्णय और संकल्प करके जरा भीतर ही भीतर अपने अंदर प्रवेश करते जायें। बाहर की सब सुध भूल जायें, तो अपने में जब ज्ञानप्रकाश का अनुभव होगा तब विदित होगा कि बस परमार्थ तत्त्व तो यही है। आनंदमयी कर्तव्य करने का तो यह है, शेष सब मायाजाल हैं, ये सब बातें ज्ञान से ही प्राप्त होती हैं। वह ज्ञान ज्ञानी संत मनुष्यों का संग करने से प्राप्त होता है। ज्ञानी संत मनुष्यों के संग करने से सारे दुर्विचार खतम हो जाते हैं। अपने स्वार्थ के लिए, अपने इंद्रिय सुख के लिए विचार बनाना वे सब दुर्विचार हैं और अपने सहज ज्ञानस्वरूप के अनुभव के लिए विचार बनाना सो सद्विचार है। ऐसे सद्विचार वाले मनुष्यों के समागम से ये सब कार्य सहज होने लगते हैं। अतएव सत्संग करना, वृद्धसेवा करना यह एक परम तपश्चरण है। हमारे जीवन में अधिकाधिक सत्संग का लाभ हो ऐसी भावना रखना चाहिए और ऐसा ही उद्यम करना चाहिए। एक कवि ने लिखा है कि हे कल्याणार्थी मनुष्यों ! यदि तुझसे तपश्चरण नहीं बनता तो मत कर किंतु एक सद्विचार मात्र से ये कषाय बैरी जीते जा सकते हैं, तो तू इतना विचार तो बना। ज्ञान से सब संकट दूर होते हैं तो ज्ञान के करने में भी कुछ क्लेश है क्या? सही सही पदार्थों का ज्ञान कर ले तेरे सारे संकट दूर हो जायेंगे। संकट लगा है मोह का, पर सही ज्ञान बनाने से संकट दूर हो जाते हैं। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए सत्संगति का यत्न करना चाहिए।