वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 820
From जैनकोष
मिथ्यात्ववेदरागा दोषा हास्यादयोऽपि षट् चैव।
चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यंतरा ग्रंथा:।।
परिग्रह की हिंसारूपता- अब आभ्यंतर परिग्रह बतला रहे हैं। आभ्यंतर परिग्रह 14 प्रकार के हैं- मिथ्यात्व, 3 वेद, और हास्यादिक 6, क्रोध, मान, माया, लोभ 4, इस तरह अंतरंग के 14 परिग्रह होते हैं, इन्हें परिग्रह कहो अथवा हिंसा कहो, इसमें कोई अंतर नहीं है, यदि स्वरूप देखा जाय। हिंसा का अर्थ है जो प्राणों का वध करे, जो प्राणों को घात करे उसका नाम है हिंसा, और जो परिग्रह का भाव है, मूर्छा का जो परिणाम है वह अपने आपकी हिंसा करता है, अपने चैतन्यस्वरूप का विकास रोकता है तो परिग्रह भी एक हिंसा है। जो 5 भेद किए गए हैं पाप के वे प्रकृति की मुख्यता से किए गए हैं, परिणाम की दृष्टि से तो पांचों के पांचों पाप हिंसा कहलाते हैं। हिंसा में बाह्य प्राणों के घात की मुख्यता नहीं है, किंतु स्वयं के विकार होने से स्वयं की शांति का घात होने से स्वयं के ज्ञानदर्शन के विकास होने का नाम हिंसा है। जो जीव प्राणियों के प्रति विरोध का भाव रखते हैं, दूसरे के प्राणों का घात विचारते हैं उन्होंने हिंसा तुरंत कर ली। अब कैसे प्रयत्न बने, और कदाचित् दूसरे प्राणी की हिंसा हो वह भविष्य की बात है। कभी कभी तो हिंसा का बंध पहिले हो जाता और बाह्य में हिंसा साबित होती है और यहाँ तक कि हिंसा का बंध भी हो जाय और उसका फल भी भोग ले और जिसकी हिंसा करने का फल मिला है उसकी हिंसा उसके बाद हो, यहाँ तक भी संभव है। जैसे कोई पुरुष किसी की हत्या करना चाहता है तो चाहता है बस इस भाव में ही उसे हिंसा का पाप लग गया और उसकी स्थिति जुड़ी अबाधाकाल छोड़कर उस बाँधे हुए कर्म का फल भी भोगने लगे अब उसे मारने का अवकाश मिले चाहे 50-60 वर्ष बाद लेकिन उस हिंसा के परिणाम का फल तुरंत भोग लिया। तो इससे यह निर्णय करना कि हिंसा करना अपने पापपरिणाम का नाम है। दूसरे का अपघात विचारना, हिंसा विचारना इसका नाम है हिंसा अथवा अनेक प्रकार से अहित विचारना, अपने आपको विषय और कषायों में लगाना यह भी हिंसा है। तो जितने प्रकार के परिग्रह हैं उनमें जो ममत्व का भाव है, मूर्छा है वह सबकी सब हिंसा है।
चतुर्दश अंतरंग परिग्रहों में मुख्य मोह परिग्रह- अंतरंग परिग्रह 14 प्रकार के हैं। मिथ्यात्व मायने मोह। समस्त पदार्थों से भिन्न अपने आत्मा का स्वरूप ज्ञानमात्र अपना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जो है ऐसा यह मैं सबसे न्यारा हूँ लेकिन ऐसे विविक्तपन की प्रतीति न करके बाह्यपदार्थों में आत्मप्रतीति करना, उनमें ममत्व रखना ये सब मोह कहलाते हैं। मोह सब पापों में प्रथम है और सबकी जड़ है, जैसे कर्मों में सब कर्मों की जड़ मोहनीय है, जब मोहनीय कर्म नहीं रहता तो बाकी कर्म कब तक रहेंगे, वे भी धीरे-धीरे सब शिथिल होकर नष्ट होकर समाप्त हो जाते हैं। मोहनीय कर्म सबसे पहिले दूर होता है और इसी बात की सूचना में तत्त्वार्थसूत्र के दशम अध्याय में जो सूत्र आया है मोहक्षपाज्ज्ञाना दर्शनावरणांतरायक्षयाच्च केवलम्, मोह और ज्ञानावरण के क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है, तो इसमें जो चारघातिया कर्मों में मोह को सर्वप्रथम बताया है उसका कारण यह है कि जीव के चारघातिया कर्मों में सबसे पहिले मोहनीय का क्षय होता है, और उस मोहनीय कर्म में भी सबसे पहिले मोहनीय का क्षय होता है, पश्चात चारित्रमोहनीय का क्षय होता है, फिर इसके बाद ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीन घातिया कर्मों का एक साथ क्षय हो जाता है, यों चारघातिया कर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। तो सर्वपापों में पाप है मोह। सर्व बैरियों में बैरी है मोह। समस्त अनर्थों में मूल है मोह। संसार में अनेक दुर्गतियों में अनेक योनियों में जो भ्रमण करते चले आ रहे हैं, उन ही प्रकार के वहाँ संक्लेश चलते हैं, उन सबका आधार मोह परिणमन है। तो अंतरंग परिग्रहों में प्रधान परिग्रह मोह है।
क्रोध, मान, माया, लोभ नामक अंतरंग परिग्रह- अब चर्चा में 4 कषायें ले लीजिए- क्रोध, मान, माया, लोभ। कोई पुरुष समस्त बाह्य परिग्रहों का त्यागी होता है, वन में रहता है, एकांत है, एकांत निवास है, व्रत और तपश्चरण भी करता है, किंतु चित्त में क्रोधभाव जगता है और उस क्रोध को अपनाता भी है तो वह परिग्रही है। देखने में ऐसा मालूम होता है कि कोई भी परिग्रह नहीं है किंतु कषाय लगी है तो वह परिग्रह है। और कषायों का अपना रहा है तो यह महापरिग्रही है, फिर भी वह मिथ्यादृष्टि हुआ। कषाय जगती है क्रोधवश, पर उस कषाय परिणामों को यह ही मैं हूँ, मैं ठीक कर रहा हूँ इस प्रकार की धुन हो तो उसे कहते हैं मोह। तब हो जाता है मिथ्यात्व अन्यथा मोह तो है नहीं। कभी कदाचित् कषाय जगी, उसे अपनाते नहीं है तो वह विकार है, लेकिन मोह परिग्रह अभी नहीं हुआ। मोह के संबंध में यह कषाय महापरिग्रह का रूप रख लेती है, इसी प्रकार मान कषाय, अभिमान, मनुष्यों में मानकषाय की प्रधानता बतायी है।
चार गतियां हैं- उनमें नरकगति में प्रधान क्रोध, तिर्यंच में प्रधान माया, देव में प्रधान लोभ और मनुष्य में प्रधान है मान। यद्यपि ये कषायें चारों गतियों में पायी जाती हैं पर प्रधानता की दृष्टि से यह बात बतायी गई है और प्राय: जन्मते समय इन गतियों में उन्हीं कषायों का उदय आता है। यह मनुष्य तो इस मान का पुतला बन गया है, जरा जरासी बात पर यह अपना मान बगराता है। बालक हो, जवान हो, बूढ़ा हो सभी इस मानकषाय को लिए बैठे हैं। तो यह मानकषाय भी परिग्रह है। माया कषाय, छल, कपट, मायाचार, मन में कुछ है, वचन में कुछ है, करते कुछ और हैं, इस प्रकार के जो वक्रभाव हैं वे हैं मायाचार। और मायाचारों में बड़ा मायाचार तो वह है जिसकी मायाचारी भी प्रकट न हो सके। जंचे यों कि यह बहुत सीधा है, सरल है, पर मायाकषाय बड़ी गहन पड़ी हुई है। तो मायाचार परिग्रह है, लोभकषाय, तृष्णा, लालच, ये तो प्रकट परिग्रह हैं। लोकव्यवहार में भी लोग लोभ को परिग्रह जाना करते हैं, क्रोध, मान, माया को परिग्रह कहने वाले कम हैं लेकिन जैसे लोभ कषाय परिग्रह है ऐसे ही क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय भी परिग्रह कहलाते हैं।
नोकषायरूप आभ्यंतर परिग्रह- शेष आभ्यंतर परिग्रह है नो कषाय। इसमें जो आसक्त होता है वह इन चार कषायों के संसर्ग से इनमें बढ़ती है। हास्यकषाय- दूसरे की बात पर हंसी आना, मजाक कर देना ये सब परिग्रह है। परिग्रह कहो, हिंसा कहो, इनसे अपने आपका विघात होता है। जिसकी हंसी करने की प्रकृति होती है वह हंसी में झूठ भी बोल सकता है, लड़ाई भी कर सकता है और कहते भी है लोग कि लड़ाई की जड़ हाँसी और रोगों की जड़ खाँसी। बड़े बड़े रोग होते हैं वे खाँसी से प्रारंभ होकर बड़े बन जाते हैं। जैसे जीर्णज्वर है, टी वी है, अनेक ऐसे रोग हैं जो खाँसी से प्रारंभ होते हैं। उसमें कुछ ज्यादा तकलीफ न हो तो उपेक्षा कर देते हैं। यह खाँसी बड़े रोगों की जड़ बन जाती है। इसी प्रकार यह हंसी जरा सी बात में दूसरों से लड़ाई करा देती है। थोड़े ही समय बाद वह हंसी बड़ी लड़ाई का घर बन जाती है। तो यह हंसी परिग्रह भी जीव की हिंसा करने वाली है। प्रीति जगने पर वस्तु में प्रीति उत्पन्न होना, जैसे कभी सफर में किसी टिकटचेकर ने कुछ गलती के कारण टिकट ले ली तो मुसाफिर उसके पीछे पीछे लगा फिरता है, ऐसे ही किसी पदार्थ में रति है तो वह पदार्थ भी उसके लिए विकट परिग्रह बन जाता है। जिसमें भी पराधीनता के अनुभव हों वे सब हिंसा के परिणाम हैं। दूसरे का भला देखने की प्रवृत्ति हो अथवा न हो किंतु जहाँ अपने आपमें पराधीनता का भाव आया वहाँ स्वाधीन वृत्ति नहीं बन सकती। चित्त में अनेक प्रकार के क्लेश और संक्लेश रहें तो वे सब हिंसा हैं। पर पदार्थों में द्वेष का परिणाम होना सो अरति परिणाम है। यह तो प्रकट हिंसारूप है, इसमें तो स्पष्ट आत्मघात की बात जंच रही है। जब किसी प्राणी के प्रति हम द्वेष भाव रखते हैं तो वह द्वेष परिणाम हमको शल्य की तरह चुभता है और उसमें अनेक प्रकार के विकल्प और संकल्प की बात सोचते रहते हैं। शोक रंज का परिणाम हो उसे परिग्रह कहते हैं, और रंज का परिणाम यह साक्षात् हिंसा ही तो है, अपने आपका उनके घात है। भय, डर होगा किसी अन्य पदार्थ को अनिष्ट मान लेने के कारण उनसे भय का परिणाम होना यह भी हिंसा है, परिग्रह है और परपदार्थों से ग्लानि करना, घृणा करना, आदिक भी परिग्रह हैं। इन सर्वपरिग्रहों से रहित जो मुनि हैं वे आत्मध्यान के पात्र होते हैं। जैसे लोग चाहते हैं कि मुझे आत्मा का ज्ञान हो और आत्मा का दर्शन हो, आत्मा का ध्यान बने, उसी में हम रंग जायें, सबकी यही इच्छा होती है कि कुछ भी जिसका धर्म की ओर भाव हो वे चाहते हैं कि मैं आत्मा में मग्न हो जाऊँ लेकिन नहीं हो पाते तो अनेक प्रयत्न करते। हम आत्ममग्न क्यों नहीं हो पाते? और उसका कारण यही है कि ये 14 प्रकार के परिग्रह अंतरंग में लगे हुए हैं विशेष विशेष रूप से इस कारण से आत्मस्वरूप की ओर ध्यान नहीं जमता है। आत्मध्यान की विराधना करने वाले ये अंतरंग 14 प्रकार के परिग्रह हैं। और इन अंतरंग परिग्रहों से बचने के लिए बाह्य में बाह्य परिग्रहों का त्याग किया जाता है।
अंतरंगपरिग्रह की शल्यरूपता- कभी ऐसा भी हो जाता कि बाह्यपदार्थों का त्याग तो कर दिया, बाह्यपदार्थों को हम अपनी दृष्टि में न लायें, ऐसा भाव करके भी त्याग दिया और कदाचित् उसमें दृष्टि पहुँच गयी, नहीं भी परिग्रह है तो उसे परिग्रह का दोष लगता है और ध्यान की विराधना होती है। पुष्पडाल मुनि की कथा बहुत प्रसिद्ध है। जब पुष्पडाल मुनि आहार करके जंगल जाने लगे तो उनके पहिले के मित्र वारिषेण उन्हें छोड़ने गए। जब काफी दूर तक संग में वारिषेण चले गए तो रास्ते में पुष्पडाल मुनि को याद दिलाया कि देखिये महाराज यह वही बाग है जहाँ हम आप पहिले खेला करते थे, इसलिए याद दिलाते थे कि महाराज यह समझ जायें कि अब काफी दूर आ गए, लौट जाने की आज्ञा दे दें। लेकिन धीरे-धीरे वे उस जंगल पहुँच गये तो वहाँ उनके वैराग्य जगी और साधु हो गए। कुछ दिन तो ठीक चले, फिर एक बार ध्यान किया कि मैं अपनी स्त्री को छोड़कर चला आया था, कहकर नहीं आया था, वह न जाने कहाँ क्या करती होगी? वह स्त्री भी कानी थी। जब इस विकल्प में वे पड़े हुए थे तो पुष्पडाल ने झट उनके मन की बात को पहिचान लिया। पुष्पडाल ने सोचा कि कोई ऐसा उपाय करे कि इस वारिषेण को विरक्ति हो जाय। तो पुष्पडाल ने क्या किया कि अपनी माँ को सूचना दी कि कल के दिन हम घर आवेंगे, सभी रानियों को खूब सजाकर रखना। माता ने जब यह संदेशा सुना तो सोचा कि मेरे पुत्र के शायद कोई विकारभाव उत्पन्न हो गया है। फिर ध्यान दिया कि शायद इसमें कोई राज हो। खैर, एक सोने का सिंहासन सजा दिया और एक काठ का, इस ख्याल से कि अगर चित्त में विकारभाव उत्पन्न हुआ होगा तो सोने के सिंहासन पर बैठ जायेंगे और अगर और कोर्इ राज की बात होगी तो इस काठ के सिंहासन पर बैठ जायेंगे। दूसरे दिन पुष्पडाल मुनि अपने मित्र वारिषेण मुनि के संग में राजदरबार में पधारे। तो दोनों मुनि काठ के सिंहासन पर बैठ गए। सभी रानियां आ गयी, सारा राजदरबार खूब सजाया गया था। उन सुंदर रानियों को देखकर वारिषेण मुनि विचार करते हैं कि अहो ! इस प्रकार की सुंदर रानियों को त्यागकर यह साधु हुए और मैं एक कानी स्त्री की चिंता करता हूँ, धिक्कार है मुझे। यों उनका स्त्री के प्रति मोहभाव गल गया, फिर दोनों मुनि सहर्ष उसी जंगल चले गए। तो ये अंतरंग की जो 14 प्रकार की कषायें हैं, विकार हैं ये जीव को शल्य की तरह चुभने वाली, दु:ख देने वाली हैं, जो इन अंतरंग परिग्रहों को भी दूर करता है वह आत्मध्यान का पात्र होता है।