वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 825
From जैनकोष
साध्वीयं स्याद्धति:शुद्धिरंत:शुद्धयाऽत्र देहिनाम्।
फल्गुभावं भजत्येव बाह्या त्वाध्यात्मिकीं विना।।
अंतरंगशुद्धि से बहिरंगशुद्धि की श्लाघा- जीवों की बाहरी शुद्धि तो अंतरंग की शुद्धि को उत्तम बनाती है और फलदायक होती है अर्थात् अंतरंग में अध्यात्म की शुद्धि न हो तो बाह्यशुद्धि व्यर्थ रहती है। जैसे कोई कोयला को कितना ही साबुन से साफ करे उसमें स्वच्छता न आयगी, यह तो काला ही बनेगा। बाह्य शुद्धि कितनी ही की जाय, पर अंतरंगशुद्धि न होने पर बाह्यशुद्धि व्यर्थ बतायी गई है। कोई पुरुष बाहरी शुद्धि बहुत करे बड़ी छुवाछूत माने- जैसे बहुत से रिवाज पहिले ऐसे थे कि चौके में जाना हों, तो जो लकीर खिची हुई है उससे पार करने में दोनों पैर एक साथ चौके में रखते थे, चौके में लकड़ी देना हो तो सारी लकड़ी हाथ में लेकर उन्हें एक साथ छोड़ते थे। यदि पैर चौके में आगे पीछे पड़े तो वे चौके को छूत मान लेते थे, लकड़ी अगर आगे पीछे गिर गई तो मानते थे कि चौका खराब हो गया। ऐसा भी कभी जमाना था। लेकिन इस शुद्धि में तत्त्व क्या है? मुक्त किसे कराना है? मुक्त कराने का अर्थ क्या है? यह आत्मा बंधन में पड़ा है, किसके बंधन में पड़ा है? विषय और कषायों के बंधन में। तो विषयकषायों के बंधन से छुटकारा दिला देना, बस यही तो मुक्ति का मार्ग है। तो ऐसा करने के लिए अपने को नि:संग अनुभव करें। मैं सबसे विविक्त केवल ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, ऐसी अंतरभावना बनायें तो इस भावना से शुद्धि प्राप्त होती है और उस अंतरंगशुद्धि से फिर बाह्य शुद्धि की भी शोभा रहती है। जैसे कोई पुरुष छुवाछूत तो बड़ी निभायें और पग पग पर तीव्र क्रोध करे तो उसकी बाह्य शुद्धि की कोई शोभा भी हुई क्या? अंतरंग में कषाय तो वैसी ही पड़ी हुई है, तो अज्ञान मिटना, मोह मिटना यही है आत्मा की अंतरंगशुद्धि। अंतरंगशुद्धि हो तो उसमें बाह्यशुद्धि भी उत्तम होती है।
अंतरंगशुद्धि की शांतिमूलता- दसलाक्षणी के जयमाला में दृष्टांत दिया है अशुचि से भरे घट का। जैसे स्वर्ण का घट है, उसमें मैला भरा है तो चाहे कितना ही ऊपर से उस घड़े को पानी से धोया जाय पर वह अशुद्ध माना जाता है, ऐसे ही यह शरीर अशुचि का घर है, 2-2।। 3-4 सेर मैला भरा ही रहा करता है, आयुर्वेद के सिद्धांत से मनुष्य के पेट में दो ढाई सेर मैला बना ही रहता है। अगर यह मैला पेट में भरा न रहे तो यह मनुष्य मरणासन्न हो जाता है। जब मनुष्य मरणहार हो गया तो इस मैल का तांता टूट जाता है। फिर यह मैला पेट में नहीं रहता। तो यह शरीर भी मल का घर है। इस मल के गेह को कितना ही जल से नहाया जाय तो शुद्ध नहीं होता है। यद्यपि ये स्नान आदिक भी यथायोग्य करना एक ध्यान की शुद्धि है, एक मन स्वच्छ हो गया अथवा हल्का हो गया, इस शरीर में विश्राम हो गया तो वह ध्यान के योग्य हो जाता है। थोड़ा बहुत सहायक है यह बाह्यशुद्धि, किंतु वह ही सब कुछ नहीं है। अंतरंगशुद्धि जगे तो बाह्यशुद्धि की उत्तमता होती है और तब ही यह बाह्यशुद्धि भी फलदायक है। जैसे किसी पुरुष के प्रति प्रीति का परिणाम है, उस प्रीतिसहित कोई कार्य निभायें तो वह ममत्व रखता है। प्रीति होना वही फलदायक माना है। कोई पुरुष विरोध रखे और परिस्थितिवश कुछ विकार भी करे तो वह पुरुष उसका एहसान न माने तो यह ज्ञात होता है कि इसके परिणाम में हमारे प्रति प्रीति नहीं है। अंतरंग प्रीति हो तो उसके उपकार का भी ममत्व होता है, ऐसे ही अंतरंगशुद्धि हो तो बहिरंगशुद्धि का भी महत्त्व होता है। ध्यान देना चाहिए यह अधिक कि विषयकषायों अशुद्धि की बढ़े नहीं, ऐसा संग करें, ऐसी चर्चा करें, ऐसा यत्न करें, ज्ञान करें जिससे विषयकषायों से शिथिलता बनती जाय अन्यथा एक शल्य होती है, फँसाव होता है और उसी में फिर बेचैनी का अनुभव करने लगता है। तो मोहकषाय विषय का त्याग करना यही है अंतरंगशुद्धि। अंतरंगशुद्धि हो तो आनंद के अनुभव बनेंगे अन्यथा बाह्यशुद्धि कितनी भी हो जाय? आत्मीय विशुद्धि आनंद की अनुभूति नहीं जग सकती। हम अपने को नि:संग अनुभव करें, समस्त परिग्रहों से रहित केवल ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, ऐसा अनुभव करके अपनी निर्मलता बढायें और अपने को प्रसन्न और सुखिया बनायें।