वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 826
From जैनकोष
संगात्कामस्तत: क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाऽशुभम्।
तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां दु:खं वाचामगोचरम्।।
परिग्रह संग की दुर्गतिबीजरूपता- संग से अर्थात् परिग्रह से काम होता है, अनेक प्रकार के वांछा विकार होते हैं। जहाँ परिग्रह है वहाँ अनेक अटपट वांछायें हुआ ही करती हैं और समस्त इच्छावों में भी अत्यंत खोटी इच्छा है मैथुन प्रसंग की, सो इस काम महाविकार का भी यह मूल परिग्रह है। परिग्रह से काम होता है। काम से क्रोध होता है। कामवासना की पूर्ति न होने पर क्रोध ही तो जगेगा और ऐसा भी जगेगा जिसमें यह कामी स्वयं तक की भी हत्या कर सकता है। क्रोध से हिंसा होती है। क्रोध में जीव पर-प्राणियों के घात में भी संकोच नहीं करता और कहो अपना भी घात कर डाले, ऐसा भी अविवेक कर डालता है। हिंसा से पाप होता है, फिर उस पाप में नरकगति में ऐसा कठिन दु:ख भोगता है जो वचनों से भी नहीं कहा जा सकता। वहाँ भूमि के स्पर्शमात्र से घोर दु:ख होता, ठंड गर्मी से लोहा भी गल जाय ऐसी ठंड गर्मी की वेदना सहनी पड़ती है। नारकी जीव एक दूसरे को देखकर शस्त्रघात अग्निदाह आदि नाना दु:ख देते हैं। ये समस्त विपदायें परिग्रह के संबंध से होती हैं।