वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 835
From जैनकोष
परीषहरिपुव्रातं तृच्छवृत्तैकभीतिदम्।
वीक्ष्य धैर्यं विमुंचंति यतय: संगसंगता:।।
परिग्रहसंगत यतियों का धैर्यविनाश- परिग्रह रखने वाले यती परिषहों के आने पर दृढ़ नहीं रह सकते, वे शीघ्र ही घबड़ा जाते हैं और अपने मार्ग से हट जाते हैं। जिनमें कुछ कायरता रहती है वह किस कारण से रहती है? परिग्रह की लालसा है इस कारण कायर बनना पड़ता है। जो पुरुष परिग्रह से दूर हैं, परिग्रह की लालसा ही नहीं रखते वे तो स्वतंत्र हैं। वे एक प्रकार से प्रभु हैं, समर्थ हैं। जो जितनी भी अधीरताएँ हैं वे सब परिग्रह के संबंध से उत्पन्न होती है। जब कुछ न हो पास, कहीं हो तो कहाँ अच्छी नींद आती है और पास में कुछ धन हो और कहीं सो जाय तो उसे नींद नहीं आती। कहीं कोई चोर न आ जाय, कोई छुड़ा न ले, यों चिंतित रहता है। लोग एक कहावत में कहते हैं- गाय न बच्छी, नींद आय अच्छी। यहाँ गाय बच्छी से मतलब परिग्रह से है। कुछ भी परिग्रह नहीं है तो वह सुख से सोता है और जहाँ परिग्रह है वहाँ सारे आराम दूर हो जाते हैं। किसी भी इंद्रियविषय का शौक लग जाय तो सारा जीवन बरबादी की ओर चलने लगता है। यह विषय, यह परिग्रह जीव का महान बैरी है। बाह्य पदार्थों की बात नहीं कह रहे, वे तो जहाँ के तहाँ पड़े हैं, किंतु बाह्यपरिग्रहों में जो मूर्छा का परिणाम जगता है, अंत: मोहभाव बनता है ऐसा विकार इसे निज आत्मप्रदेशों में स्थित नहीं होने देता है। इस जीव को परेशान करने वाली तृष्णा है। जीवन बना है प्रभुभक्ति के लिए, धर्मपालन के लिए, न कि जड़ वैभवों को बढ़ाने के लिए। ऐसा लक्ष्य नहीं बना पाते मोही लोग। यदि यह लक्ष्य बन जाय, यह बुद्धि जग जाय तो फिर इतनी तृष्णा में यह नहीं पड़ सकता। एक अपना गुजारा भर करना है सो उदयानुसार जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही संतोष रखकर अपने ज्ञान, ध्यान, तपश्चरण, संयम इनमें अपनी प्रीति जगायें और इस दुर्लभ नरजीवन को सफल बना लें। ऐसी बुद्धि मोही जीवों को नहीं जग पाती है। परिग्रह का संबंध होते ही और और भी बाधायें हो जाती हैं। यह परिग्रह इस जीव को बहुत हैरान करता है, मोह की ग्रंथि को बहुत दृढ़ करता है और इसी कारण यह मोही जीव ऐसा कायर बन जाता है कि जीव को फिर किसी भी परिषह के, उपसर्ग के सहने की धीरता नहीं रहती। और कायर बनकर इस धर्म के पथ से हट जाता है, और अपने आपको संक्लेश में डालकर दु:खी बनाता रहता है। ऐसा यथार्थतत्त्व समझें और परिग्रह से मूर्छा का परिणाम हटा लें, अपने को निष्परिग्रह केवल ज्ञानानंदस्वरूप अनुभव करना चाहिए। इस आत्मानुभव से ही इस जीव का उद्धार संभव है।