वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 836
From जैनकोष
सर्वसंगपरित्याग: कीर्त्यते श्रीजिनागमे।
यस्तमेवान्यथा ब्रूते स हीन: स्वान्यघातक:।।
सर्वपरिग्रहत्याग में ही परमार्थ संयतपना- श्रीमत् जिनेंद्र भगवान के परम आगम में समस्त परिग्रहों के त्याग को ही महाव्रत कहा है। जो कोई इससे अन्यथा कहता है वह अधम है और अपना और पर का घात करने वाला है। साधुता परिग्रह के त्याग में ही होती है और परिग्रहों में बाह्यपरिग्रह तो एक जितने भी अन्य पदार्थ हैं, शरीर तो एक छोड़ा नहीं जा सकता, इसके अतिरिक्त जितनी भी चीजें हैं वे सब बाह्यपरिग्रह हैं। जिन पदार्थों में मूर्छा जग सकती है वे सब पदार्थ परिग्रह हैं, एक पिछी, कमंडल और एक आध शास्त्र ये शास्त्र के परिग्रह नहीं बताया है, क्योंकि ये तीन उपकरण ऐसे है कि इनके बारे में मूर्छा भी जग सकती है। ये एक गुजारे के उपकरण हैं, धर्माचरण के उपकरण हैं। शास्त्र से स्वाध्याय करते, कमंडल से कायशुद्धि करते और पिछी से जीवरक्षा करते। यदि कोई कमंडल को खूब रंग बिरंगा सजाकर रखे, उसको निरखकर खुश हो, पिछी को बहुत से पंखों से खूब सुहावनी बनाकर रखे, शास्त्र को दिल बहलावा की दृष्टिकोण से खूब सजाकर रखे तो ये भी साधु के परिग्रह हो जाते हैं, अन्यथा ये परिग्रह नहीं बताए गए हैं। जितने भी बाह्य परिग्रह हैं उन परिग्रहों का जिनके त्याग है सो समझिये कि ये साधु हैं। किसी भी साधु को निरखकर झट यह समझ जाये कि वास्तव में यह साधु है या नहीं तो यह देख लीजिए कि यह बाह्य में क्या क्या चीजें रखा करता है? बहुत सी सवारियां हो, हाथी हो, घोड़ा हो, मोटर हो, और और भी अनेक प्रकार के सामान हों, और उनके पीछे अनेक प्रकार के विकल्प रखता हो तो समझ लीजिए कि उसे साधु नहीं कह सकते। अथवा शरीर का श्रृंगार करने के लिए अनेक बाह्य पदार्थ इकट्ठे किये हों, जुटायें रखे हों, श्रृंगार बनाने के लिए बहुत सी मालायें पहिनें हों, और और प्रकार के झांझ मजीरा चिपटा त्रिशूल, डमरू आदि रखे हों, शरीर को भस्म आदिक से रमाये हों, ऐसी जिनकी बाह्य पदार्थों में दृष्टि हो, प्रवृत्ति हो तो समझना चाहिए कि वह साधुता नहीं है। अपने आराम के लिए पैरों में जूता पहिने हों, खड़ाऊ लिए हो आदिक कुछ भी बाह्य परिग्रह साथ रखते हों तो वहाँ साधुता नहीं है। परिग्रह त्याग ही महान व्रत कहा गया है। कोई लोग इससे विपरीत कहते हैं। जैसे इतने कपड़े रख लिया तो वह साधु हो जायेगा। इतने बर्तन रख लिया और उन्हें उपकरण मान लिया कि ये भी सब उपकरण हैं तो वस्त्र, बर्तन या अन्य कुछ भी किसी को उपकरण मानकर कोई रखे तो वहाँ साधुता नहीं है, ऐसा कहने वाले अपना भी घात करते हैं और दूसरे प्राणियों का भी अकल्याण करते हैं। खुद तो अन्यथा श्रद्धा किया। बाह्य पदार्थों में अपना विकल्प बनाया, अपने को उलझाया इस कारण से वे अपने घातक हुए और ऐसा उपदेश करके दूसरे लोगों को भी शिथिल बनाया, मोक्षमार्ग से भ्रष्ट बनाया तो यों पर के घात करने वाले हुए। परिग्रह त्याग ही साधुवों का महान व्रत है।