वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 841
From जैनकोष
बाह्यानपि च य: संगान्परित्यक्तुमनीश्वर:।
स क्लीब: कर्मणां सैन्यं कथमग्रे हनिष्यति।।
बाह्यपरिग्रह के त्याग में भी कातर रहने वाले के निवृत्ति की असंभवता- जो पुरुष बाह्यपरिग्रह को भी छोड़ने में असमर्थ है, कायर है वह आगे कर्मों की सेना को कैसे हटेगा? इस जीव पर कर्म छाये हुए हैं यह बहुत बड़े संकट की बात है। कर्मसेना को दूर करने का बहुत बड़ा काम इस जीव को पड़ा है क्योंकि यह कर्म बैरी यदि जीव के साथ रहेगा तो भव-भव में जन्म मरण कराकर सुख-दु:ख भोगकर इस जीव को बरबाद ही करता रहता है। बहुत बड़ा काम पड़ा है कर्मसेना को जीतने का। पूजा में प्रारंभ से अंत तक यही तो पढ़ते हैं कि मेरे समस्त भावकर्म एवं द्रव्यकर्म नष्ट हो जायें, मेरे जन्म जरा मरण दूर हों, संसार का संताप दूर हो, अक्षय अविनाशी पद की प्राप्ति हो, समस्त विकार मेरे दूर हों, अष्टकर्मों का विध्वंस हो, मोहांधकार का विनाश हो, ये ही सब भावनाएँ तो हम प्रभुपूजा में करते हैं और इन्हीं भावों को बनाने के लिए द्रव्य का सहारा लेते हैं। तो यह काम सबसे बड़ा करने का है। लोक में इज्जत चाहने, गृहव्यवस्था बनाने आदि के काम तो आवश्यक काम नहीं हैं। यह सब तो मायाजाल है। यहाँ जीव को करने का सबसे बड़ा काम है कर्मरूपी सेना को परास्त कर देना, कर्म का विनाश कर देना, इतने बड़े काम को करने के लिए यदि समस्त बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहों का त्याग कर दिया जाय तो वह कोई बड़ी बात कर ली क्या? इतना तो करना ही होगा। जो बाह्यपरिग्रहों का भी त्याग नहीं कर सकते वे कर्मबैरियों को आगे जीतेंगे ही क्या? तो इन परिग्रहों के त्याग करने से भी बढ़कर कर्मबैरियों को जीतने का एक उत्कृष्ट काम पड़ा हुआ है, साथ ही अपने को अहंकाररहित एकाकी चैतन्यमात्र अनुभव करना आदिक बड़े बड़े काम करने को पड़े हैं। बाह्यपरिग्रहों का त्याग कर देना इन सब कामों के मुकाबले बहुत सीधा और छोटा काम है। बाह्यपरिग्रहों का जो जीव त्याग न कर सके वह तो कायर है। अध्यात्मक्षेत्र में मुक्ति के मार्ग में वह कायर मनुष्य फिर कर्म की सेना को कैसे दूर कर सकता है? मुक्ति के कर्तव्य के लिए सबसे प्रथम और सीधा मामूली सा यह काम है कि सर्वपरिग्रहों का त्याग कर दे। जो जीव मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं वे शुक्लध्यान प्रकट करें, जिसमें रागद्वेष की कड़िका भी न हो ऐसा पवित्र उत्तम ध्यान बनायें और उससे पहिले उत्तम धर्मध्यान बनायें, कषायों को जीतें, विषयों के विकल्पों से हटें, इतने विशाल काम करने को पड़े हैं। कोई मुनि बाह्यपरिग्रह का भी त्याग सही ढंग से न कर सके तो फिर आगे के बड़े कार्यों को करेगा ही क्या? अपने को सहज शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावमात्र निर्मल अनुभव किए बिना मुक्ति नहीं मिल सकती, और ऐसा ध्यान बनाने के लिए अपने को नि:संग अनुभव करना होगा। मैं तो मात्र मैं ही हूँ, अन्यरूप नहीं हूँ, मेरा अन्य कुछ नहीं है। मेरा स्वरूप मेरा स्वभाव सर्वस्व है, ऐसा अनुभव करने के लिए सर्वपरिग्रह का त्याग करना आवश्यक है।